सीहोर 29 अगस्त (नि.सं.)। ओलंपिक खेलों में भारत के खिलाड़ियों की स्थिति और हर बार स्वर्ण पदक से चूक जाने वाले का शासन भले ही देश के खिलाड़ियों के लिये अनेकानेक सुविधाएं मुहैया कराने के प्रयास करता रहे लेकिन जिन अधिकारियों को यह जिम्मा सौंपा जाता है वह इसे कभी गंभीरता से नहीं लेते। आज खेल दिवस पर खेल विभाग सोता रहा। उसने ना तो कोई कार्यक्रम किया ना ही उसे खिलाड़ियों की याद आती है। खिलाड़ी तो दूर खिलाड़ियों के नाम अपना घर चला रहे एक शासकिय कोच का चेहरा आज तक खिलाड़ियों को खेल मैदान पर देखने को नसीब नहीं हुआ है। आश्चर्य है यह व्यक्ति किस आधार पर शासकिय कोच बना हुआ है। साल भर स्कालरशिप बंटी नहीं यह समस्या तो खड़ी ही है बल्कि मुख्यमंत्री द्वारा स्वीकृत मल्टी जिम मशीन तक खेल विभाग लगवाने को तैयार नही है ? फिर कैसे निकलेंगे जिला स्तर से कोई राष्ट्रीय खिलाड़ी ? और देश का नाम कैसे रोशन होगा?
खेल भावना से परे सीहोर का खेल विभाग दूसरे ही तरह के खेल खेलने में लगा रहता है। खेल के नाम पर भ्रष्टाचार के किस्से तो सीहोर में भी मौजूद हैं लेकिन खेल विभाग की निष्क्रियता से स्थानीय खिलाड़ियों का मनोबल बहुत कमजोर हो रहा है। सीहोर एक ऐसा स्थान है जहाँ कुश्ती, फुटबाल, क्रिकेट, टेबल टेनिस ही नहीं चक दे इण्डिया कर देने वाली हॉकी टीम तक मौजूद हैं।
वर्षो वर्ष से अनवरत सीहोर को ही यह उपलब्धी है यहाँ के अधिकांश खिलाड़ी प्रदेश स्तरीय टीम में चुने जाते हैं और प्रदेश का नेतृत्व करते हैं। लेकिन इसके पीछे किसी खेल विभाग नामक शासन की निकम्मी संस्था का हाथ नहीं होता जो कभी खिलाड़ियों के लिये कुछ नहीं करती बल्कि इसके पीछे स्थानीय खेल संगठनों और निशुल्क सेवा देने वाले अनेक कोच का योगदान रहता है। यह कोच सदैव पूरी तत्परता से अपने खिलाड़ियों को आगे बढ़ाने में लगे नजर आते हैं। कोई रस्सी खेंच, कोई कुश्ती तो कोई अन्य खेल अपने दम पर अपने खिलाड़ियों को सिखाता, आगे बढ़ाता और राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर खिलवाता है। दादा शिवलाल का नाम तो सीहोर के हॉकी इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा है जिन्होने अपने वेतन से अधिकांश प्रशिक्षुओं को हॉकी से लेकर जूते-मोजे तक दिलवाये और उन्हे खेल खिलाकर आगे बढ़ाया।
खेर बात हो रही थी, खेल विभाग की। आज खेल दिवस पर स्थानीय खेल विभाग ने कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया।
ज्ञातव्य है कि शासन द्वारा खेल विभाग के माध्यम से हर जिले के लिये एक निशुल्क कोच की व्यवस्था की गई है। जिला पुलिस अधीक्षक कार्यालय से अटैच इस कोच का काम होता है कि वह वर्ष भर नगर की खेल प्रतिभाओं को आगे बढ़ाये, उन्हे हर तरह की मदद दे, प्रशिक्षण दे और जो परेशानी आ रही है उसे दूर कराये। लेकिन सीहोर में दुर्भाग्य से जो कोच है वह मोटा वेतन तो खेल के नाम से पा रहा है लेकिन खिलाड़ियों को उसका चेहरा भी ठीक से याद नहीं है।
शासकिय कोच कभी चर्च मैदान या अन्य किसी खेल मैदान पर नजर हीं नहीं आते हैं। ऐसे कोच का क्या फायदा जिसे सिर्फ वेतन से मतलब हो। यदि ऐसा कोच रहेगा तो फिर शासन की योजना का क्या लाभ और साल भर में लाखों रुपये इसको वेतन के देकर रुपये बर्वादी ही हो रही है।
सूत्रों का कहना है कि खेल विभाग से जुड़े एक अधिकारी का सिर्फ ऐसे मुर्गों को ढूंढने में लगे रहते हैं जिनको बंदूक का लायसेंस बनवाना हो। दिनभर लायसेंस का काम यह करते रहते हैं जबकि जो काम इन्हे सौंपा गया है वह यह नहीं करते। जिससे अपने उच्च अधिकारियों की आंखों के तारे भी यह बने हुए हैं। कोई इनसे कुछ नहीं कहता।
वर्ष 2008 तो पूरा खत्म होने को आ गया लेकिन स्थानीय खिलाड़ियों को अभी तक शासन की और से मिलने वाली स्कालरशिप ही नहीं दी गई है ? इस मद में आने वाली राशि सदैव संदेह के घेरे में रहती है किसको कितनी दी गई ? कितने पर हस्ताक्षर हुए ? क्या हुआ क्या नहीं यह संदेह में रहता है। ऐसे में इस वर्ष स्कालरशिप की राशि नहीं दी जाना खिलाड़ियों के लिये समस्या बनी हुई है।
आखिर क्यों नहीं आता स्वर्णपदक - आप स्वयं अंदाजा लगाये यदि कोई खिलाड़ी अपनी पढ़ाई को दांव पर लगाकर किसी खेल में आगे बढ़ रहा हो तो उसके शासन से मदद मिलना चाहिये, न सिर्फ स्कालरशिप समय पर मिल जाये बल्कि यदि कोच उसको हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराने लगे जैसा की शासन व्यवस्था भी करता है तो फिर क्या कहने? लेकिन अक्सर देखने में आता है कि जिन अधिकारियों द्वारा खेल विभाग का काम देखा जाता है वह ऐसे खिलाड़ी जो दो-तीन नेशनल खेल आते हैं उनकी तरफ ध्यान ही नहीं देते है? ऐसे में खिलाड़ी मजबूरी में खेल से ध्यान हटाकर पुन: पढाई की तरफ मुख मोड़ता हैं। जबकि जो खिलाड़ी आगे बढ़ रहा है उसको सहयोग देकर, प्रशिक्षण दिया जाये तो निश्चित ही ऐसे खिलाड़ी अपने देश का नाम रोशन कर सकें।
यहाँ तो सीहोर में स्थिति और भी विपरीत है। गर्मी के छुट्टियों में भी जो प्रशिक्षण शिविर लगते हैं वह नाम मात्र के ही होते हैं, ना खिलाड़ियों में उत्साह पैदा हो पाता है ना कोई व्यवस्था रहती हैं। आज जब ओलंपिक में एक मात्र स्वर्णपदक पर संतोष करके भारत रह गया है तब निश्चित ही खेल विभागों के रवैये की तरफ ध्यान जाता है। सूत्रों का कहना है कि मुख्यमंत्री जी ने एक मल्टीजिम मशीन की घोषणा की है जिसे चर्च मैदान में लगाया जायेगा विधायक जी के प्रयास से यह स्वीकृत तो हो गई है लेकिन आज 4 माह से अधिक समय हो जाने के बाद भी स्थानीय खेल विभाग ने यह मशीन सीहोर के लिये लाने के प्रयास तक नहीं किये हैं। खेल विभाग के अधिकारी, कर्मचारियों के व्यवहार से जिले भर के खिलाड़ी रुष्ट और दुखी हैं।
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