Monday, April 7, 2008

दैनिक फुरसत परिवार की और से नवसंवत्सर की सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं

आज फुरसत के चिट्ठे का शुभारंभ माननीय अतिथिगण अनिल जी पालीवाल, कैलाश जी अग्रवाल, वरिष्ठ पत्रकार पुरुषोत्तम कुईया, रामनारायण ताम्रकार, अभिभाषक संघ अध्यक्ष मुकेश सक्सेना, पत्रकार सुरेश साबू, अनिल राय, वरिष्ठ आचार्य गणेश मंदिर के पुजारी जी श्री पृथ्वीबल्लभ जी दुबे द्वारा सायं 6 बजे किया गया। आज से नित्य ताजा तरीन समाचार फुरसत के इस चिट्ठे पर पढ़े जा सकेंगे । सम्पादक आनन्द गॉधी ने फुरसत परिवार की इस उपलब्धि पर सभी पाठकों को बधाई दी है। अब विश्व के किसी भी कोने में बैठकर फुरसत के चुटीले और सीहोर के ताजा समाचार पढ़े जा सकते हैं । सीहोर से जुड़े अनेक लोग जो सीहोर से बाहर हैं वह इसका भरपूर लाभ उठा सकेंगे ।

चैत्र नवरात्र : देवी साधना के दिन

इस बार चैत्र नवरात्र छह अप्रैल, रविवार को प्रारंभ होंगे और 14 अप्रैल रामनवमी को संपन्न होंगे। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी चैत्र नवरात्र का पदार्पण होगा। वर्ष के चार नवरात्रों में दो मुख्य चैत्र और आश्विन के नवरात्र हैं। इनमें भी चैत्र नवरात्र की अपनी विशिष्टता और महत्ता है। इसकी विशिष्टता का कारण इस अवधि में सूक्ष्म वातावरण में दिव्य हलचलों का होना है।
सूक्ष्मदर्शी इस तथ्य से परिचित और प्रभावित होते हैं और इस अवसर को विशिष्ट अनुष्ठानों एवं साधनाओं में व्यतीत करते हैं। वे वातावरण में सघन रूप से उमड़ते-घुमड़ते चैतन्य प्रवाह को अपनी साधना के माध्यम से आकर्षित करते हैं। अपने परिजन इस तथ्य से गहराई से अवगत हैं।
सामान्य समय में की गई साधना और नवरात्र व विशिष्ट मुहूर्त में संपन्न साधना के परिणाम में बहुत अंतर होता है। क्योंकि साधना का संबंध काल, स्थिति और मुहूर्त से बड़ी गहराई से जुड़ा होता है। सामान्य समय में जिसे प्राप्त करने में महीनों लग सकते हैं, उसे मुहूर्त विशेष पर कुछ ही समय में उपलब्ध किया जा सकता है। सामान्य दिनों में ब्रह्ममुहूर्त ऐसा ही चमत्कारिक क्षण होता है। इस समय में ब्रह्मांडीय चेतना का प्रवाह सघन होता है। अत: इस दौरान की गई साधना का सुफल बहुगुणित होता है। तंत्र साधकों के लिए मध्यरात्रि का पहर यानी करीब एक बजे अति महत्वपूर्ण माना जाता है। इन मुहूर्तों में प्रवाहित ब्रह्मांडीय चेतना सामान्य से कई गुना अधिक नवरात्र की पूरी समयावधि में होती है। यही वजह है कि इस पूरी अवधि को संयम और साधना पूर्वक गुजारा जाता है।
साधना के विषय में बड़ी भ्रांत धारणा है कि कलियुग में इन दिनों साधना करना संभव नहीं है। जो साधना की भी जाती है, तो उसका परिणाम दृष्टिगोचर नहीं होता। जबकि ऐसा है नहीं। साधना केमिस्ट्री की लैब में किए जाने वाले केमिकल एक्सपेरिमेंट से कहीं अधिक सूक्ष्म और व्यापक होती है। एक्सपेरिमेंट ठीक ढंग से संपन्न नहीं किए जाने पर इसका वांछित परिणाम नहीं मिलता है, ठीक इसी प्रकार इसके लाभ से वंचित होना स्वाभाविक है। तो फिर ऐसा क्या करें कि चैत्र नवरात्र साधक के जीवन में उषा की स्वर्णिम किरणों के समान आलोक फैला दे? इसकेलिए इस अवधि में किए जाने वाले अपने इच्छित अनुष्ठान की पूर्ण तैयारी कर ली जाए और कुशल प्रयोगकर्ता के समान इस प्रयोग को प्रारंभ किया जाए।
साधक अपनी साधना का चयन अपने अनुरूप करता है। इस अवधि में 24 हजार गायत्री मंत्र केजप का एक लघु अनुष्ठान संपन्न किया जा सकता है। इसके अलावा महामृत्युंजय मंत्र, नवार्ण मंत्र, दुर्गासप्तशती का पाठ, रामायण और गीता का पाठ भी किया जा सकता है, लेकिन इन सबके साथ गायत्री मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए। साधना के लिए आवश्यक है निरंतरता, असीम धैर्य और साहस। इसके दो पक्ष हैं श्रध्दा और कर्मकांड। कर्मकांड अनुष्ठान का कलेवर होता है। कलेवर ठीक-ठीक होना चाहिए। इसमें जप की संख्या, स्थान, काल और यम-नियम आते हैं।
नवरात्र साधना के दिनों में जिन अनुशासनों, व्रतों या तपश्चर्याओं का कड़ाई के साथ पालन किया जाता है, उनमें पांच प्रमुख हैं- उपवास, ब्रह्मचर्य, विलासिता का त्याग, सदाचरण और मौन। इसके अलावा इन दिनों तामसिक भोजन, चमड़े की वस्तुओं का त्याग, अपना काम स्वयं करना, निंदा, झूठ आदि से परहेज करना चाहिए। इन सारे संयम और अनुशासन की आवश्यकता इसलिए बनाई जाती है, क्योंकि ब्रह्मांडीय ऊर्जा को अपने अंदर आकर्षित किया जाता है और उसे ग्रहण किया जाता है। वह यों अनायास ही न बिखर जाए। वह ऊर्जा हमारी चेतना को परिष्कृत, परिमार्जित और परिवर्ध्दित करे और हम इससे लाभान्वित हों। इन्हीं कारणों से साधना केसाथ संयम और अनुशासन की महत्‍ता बताई जाती है।
इन संयम, अनुशासन के बावजूद साधना से इच्छित लाभ न मिलने की शिकायत रह जाती है और इसे बारीकी से छानबीन करने पर पता चलता है कि कलेवर में प्राण का ही संयोग छूट गया था। साधना का कलेवर कर्मकांड को तो हमने ठीक-ठीक निभाया, परंतु इसकेश्रध्दा पक्ष को भुला दिया। श्रध्दा के अभाव में साधना अधूरी और एकांगी रहती है। अधूरी-एकांगी साधना भला हमें कैसे लाभान्वित कर सकती है! अत: जो भी मंत्र हम जप कर रहे हों, उसे तन्मयता और भावनापूर्वक करना चाहिए। श्रध्दा साधना का प्राण है, मूल है, इसलिए धीरे-धीरे सही, लेकिन हृदय की गहराई से मंत्र का जाप करना चाहिए। अगर उचित कर्मकांड के साथ किए जाने वाले अनुष्ठान में श्रध्दा भावना का समुचित समावेश हो सके, तो परिणाम और लाभ आश्चर्यजनक व चमत्कारिक होते हैं। यही वह रहस्य और गुप्त सूत्र है, जिसके जाने बिना साधना बोझ-सी और नीरस प्रतीत होती है।
वर्तमान जीवन में वांछित उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के समावेश का दृढ़तापूर्वक संकल्प करना चाहिए। यह सुनिश्चित मानकर चलना चाहिए कि श्रेष्ठ गतिविधियों को अपनाते हुए ही हम अपनी श्रेष्ठ संभावनाओं को साकार कर सकते हैं और ईश्वरीय अनुग्रह के सुपात्र अधिकारी बन सकते हैं। इस भावभूमि में उपर्युक्त सूत्रों के साथ संपन्न चैत्र नवरात्र की साधना निश्चित रूप से साधक पर गायत्री महाशक्ति एवं गुरुसत्ता के अनुदानों को बरसाने वाली सिध्द होगी।

विंध्‍याचल विंध्‍‍यवासिनी धाम

पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में है। गंगा की पवित्र धाराओं से प्रक्षालित विंध्य पहाड़ियों में प्रकृति ने अनुपम छटा बिखेर रखी है। विंध्य परिक्षेत्र, विंध्याचल पहाड़, विस्तृत वन और गंगा की कलकल करती धाराओं से लगा मात्र भूमि का एक खंड ही नहीं है, बल्कि संस्कृति का अद्भुत अध्याय भी है।
इसकी माटी की गोद में पुराणों के विश्वास और अतीत के अनेक तथ्य सोए पड़े हैं। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिध्दि प्राप्त होती है।विविध संप्रदाय के उपासकों को मनोवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। यहां पर संकल्प मात्र से उपासकों को सिध्दि प्राप्त होती है। इस कारण यह क्षेत्र सिध्द पीठ के रूप में विख्‍यात है।
आदि शक्ति की शाश्वत लीला भूमि मां विंध्यवासिनी के धाम में पूरे वर्ष दर्शनाथयों का आना-जाना लगा रहता है। चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर यहां देश के कोने-कोने से लोगों का का समूह जुटता है। ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं। इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है, जिसमें सृष्टि के प्रारंभ काल की कुछ इस प्रकार से चर्चा है-
सृजन की आरंभिक अवस्था में संपूर्ण रूप से सर्वत्र जल ही विमान था। शेषमायी नारायन निद्रा में लीन थे। भगवान के नाभि कमल पर वृध्द प्रजापति आत्मचिंतन में निमग्न थे। तभी विष्णु के कर्ण रंध्र से दो अतिबली असुरों का प्रादुर्भाव हुआ। ये ब्रह्मा को देखकर उनका वध करने के लिए दौड़े। ब्रह्मा को अपना अनिष्ट निकट दिखाई देने लगा। असुरों से लड़ना रजोगुणी ब्रह्मा के लिए संभव नहीं था। यह कार्य श्री विष्णु ही कर सकते थे, जो निद्रा के वशीभूत थे। ऐसे में ब्रह्मा को भगवती महामाया की स्तुति करनी पड़ी, तब जाकर उनके ऊपर आया संकट दूर हो सका।

मां के पताका (ध्वज) का महत्व
मान्यता है कि शारदीय व वासंतिक नवरात्र में मां भगवती नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि यह सूर्य चंद्र पताकिनी के रूप में जाना जाता है। यह निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी देवी के पताका में ही मिलेगा।
अष्टभुजा देवी
यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्‍तर दिशा की ओर मुख किए हुए अष्टभुजा देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को साधती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्‍तों की आठ भुजाओं से रक्षा करती हैं। ऐसी मान्यता है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह दल हैं। उसके बाद चौबीस दल हैं। बीच में एक बिंदु है जिसमें ब्रह्म रूप से महादेवी अष्टभुजा निवास करती हैं।

गणगौर का सांस्‍कृतिक पर्व

होली के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्योहार आरंभ हो जाता है जो पूरे अठारह दिन तक लगातार चलता रहता है। बड़े सवेरे ही होली की राख को गाती-बजाती स्त्रियाँ अपने घर लाती हैं। मिट्टी गलाकर उससे सोलह पिंडियाँ बनाती हैं, शंकर और पार्वती बनाकर सोलह दिन बराबर उनकी पूजा करती हैं।
दीवार पर सोलह बिंदिया कुंकुम की, सोलह बिंदिया मेहँदी की और सोलह बिंदिया काजल की प्रतिदिन लगाती हैं। कुंकुम, मेहँदी और काजल तीनों ही श्रंगार की वस्तुएँ हैं। सुहाग की प्रतीक हैं। शंकर को पूजती हुई कुँआरी कन्याएँ प्रार्थना करती हैं कि उन्हें मनचाहा वर प्राप्त हो। शंकर और पार्वती को आदर्श दंपति माना गया है। दोनों के बीच अटूट प्रेम है।
शंकर के जीवन में और मन में कभी दूसरी स्त्री का ध्यान नहीं आया। सभी स्त्रियाँ अपने जीवन में पति का प्रेम चाहती हैं। किसी और की साझेदारी की वे कल्पना तक करना पसंद नहीं करतीं। कन्याएँ एक समूह में सज-धज कर दूब और फूल लेकर गीत गाती हुई बाग-बगीचे में जाती हैं। घर-मोहगों से गीतों की आवाज से सारा वातावरण गूँज उठता है।
कन्याएँ कलश को सिर पर रखकर घर से निकलती हैं तथा किसी मनोहर स्थान पर उन कलशों को रखकर इर्द-गिर्द घूमर लेती हैं। जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है। वस्त्र और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हजारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाजार गूँज उठता है।
राजघरानों में रानियाँ और राजकुमारियाँ प्रतिदिन गवर की पूजा करती हैं। चित्रकार पूजन के स्थान पर दीवार पर ईसर और गवरी के भव्य चित्र अंकित कर देता है। केले के पेड़ के पास ईसर और गवरी चौपड़ खेलते हुए अंकित किए जाते हैं। ईसर के सामने गवरी हाथ जोड़े बैठी रहती हैं। ईसरजी काली दाढी और राजसी पोशाक में तेजस्वी पुरुष के रूप में अंकित किए जाते हैं। मिट्टी की पिंडियों की पूजा कर दीवार पर गवरी के चित्र के नीचे सोलह कुंकुम और काजल की बिंदिया लगाकर हरी दूब से पूजती हैं। साथ ही इच्छा प्राप्ति के गीत गाती हैं। एक बुजुर्ग औरत फिर पाँच कहानी सुनाती है। ये होती हैं शंकर-पार्वती के प्रेम की, दाम्पत्य जीवन की मधुर झलकियों की। उनके आपस की चुहलबाजी की सरस, सुंदर साथ ही शिक्षाप्रद छोटी-छोटी कहानियाँ और चुटकुले। गणगौर के त्योहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया जाता है। स्त्रियाँ गहने कपड़ों से सजी-धजी रहती हैं।
नाचना और गाना तो इस त्योहार का मुख्य अंग है ही। घरों के ऑंगन में, सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है। परदेश गए हुए इस त्योहार पर घर लौट आते हैं। जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात को जरूर आएँगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा को व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत हैं। ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं।
चैत्र शुक्ल तीज को गणगौर की प्रतिमा एक चौकी पर रख दी जाती है। यह प्रतिमा लकड़ी की बनी होती है। उसे जेवर और वस्त्र पहनाए जाते हैं। उस प्रतिमा की सवारी या शोभायात्रा निकाली जाती है।
नाथद्वारा में सात दिन तक लगातार सवारी निकलती है। सवारी में भाग लेने वाले व्यक्तियों की पोशाक भी उस रंग की होती है जिस रंग की गणगौर की पोशाक होती है। सात दिन तक अलग-अलग रंग की पोशाक पहनी जाती है। आम जनता के वस्त्र गणगौर के अवसर पर नि:शुल्क रंगे जाते हैं। उदयपुर में गणगौर की नाव प्रसिध्द है। इस प्रकार पूरे राजस्थान में गणगौर उत्सव बडी धूमधाम से मनाया जाता है।

चैत्र की शुक्ल प्रतिपदा पर विशेष

चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा कहते हैं। वर्ष के साढ़े तीन मुहूर्तों में गुड़ी पड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लडके ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिटककर उसको सजीव बनाया और उसकी मदद से प्रभावी शत्रुओं का पराभव किया।
इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। शालिवाहन ने मिट्टी की सेना में प्राणों का संचार किया, यह एक लाक्षणिक कथन है। उसके समय में लोग बिलकुल चैतन्यहीन, पौरुषहीन और परामहीन बन गए थे। इसलिए वे शत्रु को जीत नहीं सकते थे। मिट्टी के मुर्दों र्को विजयश्री कैसे प्राप्त होगी? लेकिन शालिवाहन ने ऐसे लोगों में चैतन्य भर दिया। मिट्टी के मुर्दों में, पत्थर के पुतलों में पौरुष और पराम जाग पड़ा और शत्रु की पराजय हुई।
सोते हुए के कानों में सांस्कृतिक शंख ध्वनि फूँकने और मृत मानव के शरीर में जीवन संचार करने के लिए आज भी ऐसे शालिवाहनों की जरूरत है। मानव मात्र में ईश्वर दत्त विशिष्ट शक्तियाँ हुई हैं। आवश्यकता है मात्र उन्हें जगाने की। समुद्र लाँघने के समय सिर पर हाथ रखकर बैठे हुए हनुमान को जरूरत है पीठ पर हाथ फेरकर विश्वास देने वाले जांबवंत की। शस्त्र त्यागकर बैठे हुए अर्जुन को जरूरत है उत्साहप्रेरक मार्गदर्शक कृष्ण की। संस्कृति के सपूत और गीता के युवकों का सत्कार करने के लिए आज का समाज भी तैयार है। आज के दिन पुरुषार्थी और परामी सांस्कृतिक वीर बनने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
ऐसी कई लोगों की मान्यता है कि इसी दिन श्री रामचंद्रजी ने बाली के जुल्म से दक्षिण की प्रजा को मुक्त किया था। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर गुड़ियाँ (ध्वजाएँ) फहराईं। आज भी घर के ऑंगन में गुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को 'गुड़ी पड़वा' नाम मिला है। घर के ऑंगन में जो 'गुड़ी' खड़ी की जाती है, वह विजय का संदेश देती है। घर में बाली का (आसुरी संपत्ति का राम यानी देवी संपत्ति ने) नाश किया है, ऐसा उसमें सूचक है।
गुड़ी यानी विजय पताका। भोग पर योग की विजय, वैभव पर विभूति की विजय और विकास पर विचार की विजय। मालाबार में यह उत्सव विशिष्ट ढंग से मनाया जाता है। घर के देवगृह में घर की सर्व सम्पत्ति और शोभायमान चीजों को व्यवस्थित ढंग से रखा जाता है। संवत्सर प्रतिपदा के दिन सुबह उठकर अपनी ऑंखें खोलकर गृहलक्ष्मी के साथ प्रभु के दर्शन करते हैं।
घर का मुख्य व्यक्ति संपत्ति और ऐश्वर्य से सुशोभित देव की आरती उतारता है।
मालाबार की इस प्रथा के पीछ भारतीय संस्कृति की झलक दिखाई देती है। सुबह उठकर, 'कराग्रे वसते लक्ष्मी:' इस श्लोक को चरितार्थ करते हुए हाथ में बसे हुए देवताओं का दर्शन करो, ऐसा जिन संस्कृति ने कहा है, उस संस्कृति के स्वर में, 'वर्ष की सुबह' यानी प्रतिपदा के दिन गृहलक्ष्मी से युक्त देवता का प्रथम दर्शन करना चाहिए। प्रात: शुभदर्शन करने वाले का दिन अच्छा बीतता है, ऐसी हमारी मान्यता है। वर्षारंभ के दिन प्रभु का दर्शन करने वाले का वर्ष अच्छा बीतेगा, इसमें कौन-सा आश्चर्य है?
गुरु समर्थ रामदास स्वामी को समर्पित राज्य प्रसाद के रूप में वापस मिलने के बाद जिस भावना से छत्रपति शिवाजी ने राज्य चलाया था, उसी भाव से वर्षभर प्रभु द्वारा भेजे हुए ऐश्वर्य का उपभोग करो, ऐसा यह प्रथा सूचित करती है।
इस दिन नीम का रसपान किया जाता है। मंदिर में दर्शन करने वाले को नीम और शक्कर प्रसाद के रूप में मिलता है। नीम कड़ुवा है, लेकिन आरोग्य-प्रद है। प्रारंभ में कष्ट देकर बाद में कल्याण करने वालों में से यह एक है।
नीम का सेवन करने वाला सदा निरोगी रहता है। प्रगति के रास्ते पर जाने वाले को जीवन में कितने 'कडुए घूँट' पीने पडते हैं, इसका भी इनमें दर्शन है। संक्षेप में, यह उत्सव मृत मानव में चेतना भरकर उसकी अस्मिता को जागृत करता है, साथ-साथ मानव को मिली हुई शक्ति, संपत्ति और बुध्दि ईश्वरदत्त है, समझाकर उसमें समर्पण की भावना को जगाता है।

पूरे देश में विभिन्न तरह से मनता है नवसंवत्सर

भारत में कई तरह के पंचागों का चलन है, इसलिए नववर्ष की पहली तिथि को लेकर भी विभेद होता है। कहीं पर यह दिवस से आरंभ होता है, तो कहीं शाके (शक संवत) से। कई जगह मकर संक्रांति, दीपावली अथवा होली जैसे त्योहारों के आधार पर इसकी गणना की जाती है। कुछ स्थानों पर नववर्ष विक्रम संवत का मलयालम पंचाग के अनुसार भी निर्धारित किया जाता है।
उत्तर प्रदेश में नववर्ष का प्रारंभ चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है। (इस वर्ष इसकी तिथि यहां 6 अप्रैल को मानी गई है) यह साल का ऐसा समय होता है, जब खेत पीले सरसों केफूलों से भर जाते हैं।
महाराष्ट्र में चैत्र शुक्ल पक्ष से नववर्ष प्रारंभ होता है। इस दिन यहां लोग अपने-अपने घरों में पुष्प सहित पताके फहराते हैं। पूजा-अर्चनाकर प्रसाद बांटते हैं।
बिहार में नववर्ष का प्रारंभ चैत्र मास के प्रथम दिन से होता है। इस समय तक रबी की फसल कट जाती है। जिससे घर द्वार अन्न से भर जाते हैं। प्रसन्नता से सराबोर लोग मौज-मस्ती करते लोक गीतों की धुन पर नाचते-गाते हैं और चैता गीत के साथ नए साल का स्वागत करते हैं।
पंजाब में नववर्ष का प्रारंभ वैशाखी से माना जाता है। फसल कटने की खुशी में झूमते लोग हफ्तों तक भांगड़ा करते हैं।
कश्मीर में नववर्ष को नावरेह कहते हैं। यह भी चैत्रमास के पहले दिन से शुरू होता है। इस समय घाटी खूबसूरत फूलों से लदी होती है। इस दिन हिंदू धर्मावलंबी थाली में नया अन्न, आभूषण रखकर फल-फूल से सजाते हैं और मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं।
केरल में नया साल मलयाली कैलेंडर पर आधारित होता है। जिसके अनुसार यह 'मेडम' मास की पहली तारीख से माना जाता है। जो अंग्रेजी केअप्रैल माह के समानांतर होता है। इसे यहां विशु कहते हैं। इस राज्य में नए साल को कोलल वर्षम भी कहा जाता है।
आंध्र प्रदेश में नया साल उगादि केनाम से जाना जाता है। जबकि तमिलनाडु में इसे आंध्र प्रदेश के नए साल के एक दिन बाद मनाया जाता है। इन दोनों राज्यों में नए साल पर तेल मालिश का प्रचलन है। इस मौके पर तमिल लोग 'बप्पम्चू पच्चाड़ी' नामक एक मिठाई भी बनाते हैं। भिन्न-भिन्न राज्यों में नववर्ष भले ही अलग-अलग दिनों में मनाया जाता हो, पर इस अवसर को उत्सव की तरह मनाने का अभिप्राय यही है कि हम नए समय चक्र में नया होकर प्रवेश करें और पुराने को उतार फेंके।