Monday, January 12, 2009

खूब बिक रहे सुअर की चर्बी से बने फुज्‍जैन के तोश

हर दिन सुअरों की क्विंटलों चर्बी निकल रही, जिसे खरीद रहे बेकरी वाले, बड़ी कम्पनियाँ भी खरीदती हैं

      सीहोर 11 जनवरी । गंभीर सोच का विषय है 1857 में जब पूरा देश गोरे अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हुआ था तो मंगल पाण्डे जैसे देश भक्त के साथ हर एक हिन्दुस्तान का नागरिक इसलिये कंधे से कंधा मिला रहा था क्योंकि अंग्रेजों ने हमारे धर्म को भ्रष्ट करना शुरु कर दिया था..... उन्होने जानबूझकर हिन्दुओं के लिये पूज्‍य गौमाता के गौमांस से निकलने वाली चर्बी और मुसलमानों के लिये नफरत का प्रतीक सुअर की चर्बी का उपयोग करके कारतूस बनाये थे.... ऐसे कारतूस जिन्हे सिर्फ मुँह से खोला जा सकता था....उनमें गाय और सुअर की चर्बी लगी थी....जब देश के क्रांतिकारियों को, नागरिकों को, सिपाहियों को पता चला तो उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल लिया......यह हमारे धर्म की बात थी..... ईसाई जाति तो मांसाहारी ही है लेकिन हिन्दुस्तान की सरजमीं पर ऐसी संस्कृति विद्यमान नहीं थी....तब धर्म की रक्षा के लिये, हमारे देश की संस्कृति की रक्षा के लिये हर एक नागरिक इंकलाब जिंदाबाद के नारे बुलंद कर रहा था...सिपाहियों ने कारतूस फेंक दिये थे और अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिये उठ खड़े हुए थे...सिर्फ अपने धर्म की रक्षा के लिये....।

      हर एक नागरिक, मनुष्य की जीवन सत्ता उसके धर्म से जुड़ी हुई है, धर्म ही उसे सही दिशा, सही ज्ञान और अंत में अच्छी सद्गति दिखा सकता है...।

      आज हम हमारे पूर्वजों, हमारे क्रांतिकारियों के 200 साल तक के सतत संघर्ष के बाद आजाद हुए....अपने धर्म की रक्षा के लिये जिन्होने हंसकर फांसी पर झूल गये और सीने पर गोलियाँ खाई आज हम उन्ही धर्मात्माओं-हुतात्माओं के दम पर आजाद हैं।

      लेकिन धीरे-धीरे आजाद भारत में हमारे ही बीच बैठे व्यापारियों ने ऐसी चाल चली कि हमारा धर्म भ्रष्ट करना शुरु कर दिया। हम मुख्यत: 1857 में जिस चर्बी वाले कारतूसों के कारण पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हो गया था उसी चर्बी को लेकर आज एक तथ्यात्मक समाचार आपके लिये लायें हैं.....।

      इन दिनों नगर में जो सबसे खस्ता और अच्छा ''तोश'' बनकर बाहर से आ रहा था वह एक धार्मिक नगरी से आ रहा है जिसका नाम हम कुछ बदलकर लिखेंगे ''फुज्‍जैन''। फुज्‍जैन से आ रहा तोश बहुत खस्ता है, और यह महंगा भी है लेकिन इसे बहुत लोग पसंद करने लगे हैं और खाते भी हैं। यह इतना अधिक खस्ता क्यों होता है जब हमने इसकी जांच की तो हमारे पैरों तले से जमीन खिसक गई और धीरे-धीरे रहस्य की ऐसी पर्ते खुलीं की फिर आप तक यह बात पहुँचाना जरुरी हो गया।

      असल में फुज्‍जैन में बनने वाले तोश या बेकरी के सामानों में खुलकर सुअर-भैंस-पाड़े-बकरे की चर्बी का उपयोग होता है। इसमें सर्वाधिक अच्छी, सस्ती सुअर की ही चर्बी मिलती है और सुअर की चर्बी का उपयोग सारे बेकरी वाले करते हैं। असल में तोश बनाने में जितनी मशक्कत है, उसे खस्ता करने में भी उतनी ही आफत। जब तक अधिक मात्रा में इसमें घी या तेल नहीं डाला जाता तब वह अच्छी तरह खस्ता नहीं बन पाता, इसलिये फुज्‍जैन वाले लोग तोश में सुअर की चर्बी खूब डालते हैं और उसी से पूरा सामान बनाते हैं।

      बेकरी पर बनने वाले बिस्कुट हो या केक, पेस्टी हो या कुछ और हर सामान में बाजार में मिलने वाला डालडा घी, या सोयाबीन तेल अथवा शुध्द घी को नहीं डाला जाता....उसमें तो मांस चर्बी वाला तेल ही डाला जाता है, क्योंकि यही सबसे सस्ता पड़ता है। हालांकि सब बेकरी वाले यही करते हैं ऐसी जानकारी नहीं है। हो सकता है कुछ और भी उपयोग होता हो लेकिन चर्बी का तेल भी उपयोग होता है ऐसी जानकारी अवश्य है। तो आगे से सावधान रहिये फुजैन के प्रसिध्द तोश खाने के पहले।

अब दूसरे ढंग से यही बात सोचिये...

      हर दिन सिर्फ सीहोर नगर में ही करीब 10-12 सुअर कटते हैं। यदि हर सुअर को 1 क्विंटल को माना जाये तो उसमें से 38 से 40 किलो चर्बी निकलती हैं मतलब 10 सुअरों से 4 क्विंटल मतलब 400 लीटर चर्बी का तेल निकलता है। इसके अलावा कटते हैं करीब 40-50 से अधिक बकरे, इनमें से हिसाब को छोड़कर सीधे अंदाज से लेते हैं कि करीब 200 लीटर से अधिक चर्बी बकरे की निकलती है। और भैंस-पाड़े भी हर दिन करीब 6 से 10 तक कटते हैं जिनमें से 50 से 100 लीटर चर्बी निकलती है। कुल मिलाकर हर दिन 700 से 800 लीटर चर्बी सीहोर नगर में ही निकलती है इतना अधिक चर्बी के तेल को क्या नाले में बहाया जाता है ? या बेच दिया जाता है ? आप भी सोचते जाईये....? इसे बेचा ही जाता है, वह भी अच्छे दाम पर।

भरते जाते हैं चर्बी से पीपे

      सीहोर में हर दिन जानवर काटने वाले लोग उनसे निकलने वाली चर्बी को एक पीपे में भरते जाते हैं और जैसे ही यह दो-तीन क्विंटल एकत्र कर लेते हैं अपने स्तर पर भोपाल या बैरागढ़ जाकर बेच आते हैं। स्थानीय लोग भी इनसे आये दिन चर्बी खरीदते रहते हैं।

कैसे निकलती है चर्बी, किसकी चर्बी कैसी होती है ? चर्बी को कहते हैं जाल

      सबसे पहले बात करते हैं बकरे की। जो बकरा बदिया होता है, उसमें सर्वाधिक चर्बी रहती है, एक 50 किलो के बकरे में करीब 10 किलो चर्बी का जाल निकलता है। मांस काटने वाले जानवर के शरीर से चर्बी को जाल कहकर अलग करते हैं। यह थोड़ी बहुत मेहनत और अनुभव के आधार पर आसानी से अलग कर दी जाती है। चर्बी का जाल सामान्य देशी बकरे में 15 किलो के बकरे में मात्र 300 ग्राम निकलता है, यदि दाना खाया हुआ अच्छा बकरा है तो सवा किलो तक निकलती है। भैंसा या पाड़े में चर्बी का जाल मुर्रा भैंस में 13 से 15 किलो का निकलता है जबकि मरी भैंस में 5 किलो तक निकल जाती है। बकरे की चर्बी का घीस देशी घी की तरह दानेदार होता है, जबकि भैंस की चर्बी डालडा घी की तरह जमती है।

      लेकिन चर्बी के मामले में सुअर तो वरदान है। इसमें 40 प्रतिशत चर्बी होती है, जितना पुराना होता है उतनी अधिक चर्बी निकलती है। मसलन इतनी अधिक चर्बी इसमें होती है कि कोई अंग कट जाये तो अंदर से सफेद अंग दिखता है जबकि खून बहुत कम निकलता है। सुअर चर्बी के मामले में 100 किलो का सुअर मे 40 किलो चर्बी का जाल रहता है, हर अंग से चर्बी निकलती है। इसकी चर्बी खोपरे की तेल की तरह होती है पिघलाओ तो तेल और ठंडी होने पर जम जाती है। सफेद रहती है। चम्मच से काटकर इसकी चर्बी या घी निकालना पड़ता है, इतना जम जाता है।

हर मंगल और रविवार को

      हर मंगलवार और रविवार को मुख्यत: सुअर कटते हैं और हाट बाजार में बिकते हैं, सारे ही हाट बाजार में मांस बिकता है। जबकि हर दिन सुअर  सीहोर से कटकर भोपाल बैरागढ़ जाता है, लेकिन चर्बी रह जाती है। इसकी चर्बी भी अच्छे दाम पर बिकती है। मुख्यत: चर्बी के मामले में दिल्ली और जबलपुर चर्बी जाने की सूचनाएं सर्वाधिक हैं। लेकिन अन्य लोग भी इसका उपयोग करते हैं। साबुन बनाने में भी इसका उपयोग होता है।

      तो अब आप ही सोचिये कि पूरे देश में मांसाहारियों की संख्या सर्वाधिक है, विश्व में तो है ही, और उससे निकलने वाली चर्बी आखिर कहाँ जाती है ? कुछ पैकिंग के सामान जो तले हुए आते हैं उनमें वेजिटेबल आईल लिखा रहता है, वह क्या होता है हमें इसकी जानकारी नहीं है। 
.
.

हमारा ईपता - fursatma@gmail.com यदि आप कुछ कहना चाहे तो यहां अपना पत्र भेजें ।

100 किलो के सुअर में 40 किलो निकलती है चर्बी, खास बातें

**  एक 100 किलो के सुअर में 38-40 किलो निकलती है चर्बी

      ** बदिया बकरा जो 22 किलो के आसपास हो तो उसमें 4 किलो निकलती है चर्बी, 50 किलो का बकरा करीब 10 किलो चर्बी देता है।

      ** भैंस-पाड़े की चर्बी सर्वाधिक निकलती है, मरी भैंस भी 5 किलो चर्बी देती है।

      ** मुर्रा भैंस में 13 से 15 किलो निकलती है चर्बी।

      ** लाखो जानवर हर दिन कटते हैं और कई लाख लीटर चर्बी निकलती हैं आखिर उसका क्या होता है उसका ? सोचिये

क्योंकि शायद यही चर्बी आप भी हर दिन खा रहे हैं...

  

 

 

चर्बी का मतलब तेल

      अरे भाई मक्खन देखा है आपने या फिर घी देखा होगा,  हाँ ठीक वैसी ही चर्बी होती है, थोड़ा रुप-रंग अलग होता है लेकिन सुअर-पाड़े,बकरे के शरीर से निकलने वाली चर्बी का एक टुकड़ा काटकर जैसे ही गर्म तवे  पर रखते हैं वह मक्खन या जमे हुए घी की तरह पिघलकर तेल में बदल जाता है.....एक बार मक्खन थोड़ी देर से पिघलेगा लेकिन चर्बी तो गर्म करते ही पिघल जाती है।

      अब सोच लीजिये कितना आसान है चर्बी का तेल बनाना.... और क्या-क्या होता होगा इसका.. मतलब चर्बी का...., खूब सोचिये.. टालिये मत....यह आपकी संस्कृति, धर्म का सवाल है......।

 

 

  

विदेशों में तो यह भी बनता है

चाकलेट, च्विंइगम, साबुन, तोश, ब्रेड, बाजार में बिकने वाले तले हुए सामान के पाऊच चिप्स आदि.... शायद और भी बहुत कुछ
.
.

हमारा ईपता - fursatma@gmail.com यदि आप कुछ कहना चाहे तो यहां अपना पत्र भेजें ।

जब सुअर-गाय की चर्बी के कारतूस नष्ट करना पड़े

      मेरठ की तरह सीहोर के फौजियों की भी एक शिकायत यह भी थी कि जो नये कारतूस फौज में उपयोग किये जा रहे हैं, उनमें गाय और सुअर की चर्बी मिली हुई है। सिपाहियों का विचार था कि अंग्रेज हिन्दुस्तानियों के दीन-ईमान को खराब कर  देना चाहते हैं। इस अवसर पर किसी ने फौज में यह अफवाह फैला दी कि सिकन्दर बेगम अंग्रेजों को खुश करने के लिये छुपकर ईसाई हो गई हैं। इन अफवाहों से फौज में रोष व्याप्त हो गया। जब यह अफवाह सिकन्दर बेगम तक पहुँची तो उन्होने अपने वकील मुंशी भवानी प्रसाद से बातचीत की लेकिन उन्होने शांत रहने की सलाह दी।  कारतूसों में चर्बी के उपयोग की शिकायत की जांच फौज के बख्शी साहब की उपस्थिति में सीहोर के हथियार थाने में की गई। इस जांच में छ: पेटी में से दो पेटी संदेहास्पद पाई गई, जिन्हे अलग कर दिया गया और ये आदेश दिये गये कि संदेह वाले कारतूसों को तोड़कर तोपों के गोलाबारुद में उपयोग में लाया जायेगा। परन्तु इस आदेश के पश्चात भी हिन्दुस्तान के वीर सिपाहियों में रोष रहा उन्हे विश्वास था कि नये कारतूसों में अवश्य ही गाय और सुबह की चर्बी उपयोग की जा रही है। इस प्रकार फौज के एक बड़े वर्ग में वगावत फैल गई।

महावीर कोठ और रमजूलाल को बाहर निकालने से डर गई बेगम सिकन्दर....

      सीहोर के बागियों से प्रभावित होकर भोपाल रियासत के फौजी भी उनके साथ होने लगे थे। सिकन्दर बेगम ने इनकी रोकथाम के लिये कड़े निर्देश जारी किये थे। अत: बख्शी मुरव्वत मोहम्मद खाँ ने सीहोर में एक आर्मी कमेटी स्थापित की थी जिसमें उच्च अधिकारी नियुक्त किये गये। फौज में सभी सिपाहियों को निर्देशित किया गया था कि वह प्रतिदिन इस कमेटी के समक्ष उपस्थित रहें। यह भी आदेश जारी किया गया कि जिन फौजियों ने सैनिक अनुशासन का उल्लंघन किया उनके प्रकरणों की जांच भी इसी कमेटी द्वारा की जायेगी। इस कमेटी ने सिपाहियों द्वारा आदेशों का पालन न करने, लापरवाही और देर से उपस्थिति आदि के कई प्रकरण पंजीबद्ध किये और अपने सिपाहियों के विरुद्ध निलंबन, निष्कासन और जबरी त्यागपत्र के आदेश जारी कर दिये। अंत में सिपाहियों की छोटी-छोटी गलती के प्रकरणों को भी इस कमेटी के सुपुर्द किया जाने लगा। सिपाहियों को इस कमेटी से चिढ होने लगी थी और वो ऐसा समझने लगे थे कि कमेटी उनको नौकरी से निकालने के लिये बनाई गई है। इससे फौज में और अधिक रोष व्याप्त हो गया। इस कमेटी ने फौज के उन चौदस सिपाहियों को भी नौकरी से निकालने का आदेश दे दिया था जो इन्दौर से बिना अनुमति डयूटी छोड़कर सीहोर आ गये थे। इन चौदह फौजियों में महावीर कोठ हवलदार और रमजूलाल सूबेदार के नाम भी सम्मिलित थे।

      सीहोर की फौज में ये दोनो बहुत लोकप्रिय थे। इसलिये इनको सेवा से हटाने से फौज में बगावत फैलने की संभावना थी इस कारण बख्शी साहब ने इन दोनो के अतिरिक्त बाकी बारह फौजियों को सेवा से पृथक कर दिया। जिन सिपाहियों को नौकरी से निकाला गया उन्हे सीहोर की सीमा से बाहर जाने का भी आदेश दिया गया। इस आदेश में यह भी लिखा था कि जो भी व्यक्ति इन लोगों को शरण देगा उसे भी सजा दी जायेगी।

बैरसिया हुआ आजाद पर सीहोर की फौज ने वहाँ जाकर बागियों से युद्ध करने का मना कर दिया

      बैरसिया रियासत भोपाल की एक तहसील में भोपाल के पॉलिटिकल एजेन्ट का एक असिस्टेंट शुभराय रहता था। यह बैरसिया का प्रशासक भी था। बैरसिया में बागी अंग्रेजों और सिकन्दर बेगम के खिलाफ खुले आम बातें कर रहे थे। 13 जुलाई 1857 को शुभराय ने एक बागी के साथ दर्ुव्यवहार किया। कहा जाता है कि बातचीत में उस बागी को मारापीटा भी। जब ये बागी जख्मी हालत में बस्ती में आया और यहॉ के लोगों को उसके जख्मी होने का कारण ज्ञात हुआ तो बैरसिया के एक प्रभावशाली व्यक्ति शुजाअत खाँ ने अपने 70 आदमियों के साथ शुभराय के बंगले पर हमला कर दिया। इस हमले में शुभ राय और उनके मीर मुंशी मखदूम बख्श कत्ल कर दिये गये। ये घटना 14 जुलाई 1857 को हुई। शुभ  राय को कत्ल कर देने के पश्चात शुजाअत खाँ के आदमियों ने बैरसिया के अंग्रेज अफसरों के घरों में आग लगा दी और जितने अंग्रेज बैरसिया में मिले उनको कत्ल कर दिया। इसके फौरन बाद शुजाअत खाँ ने बैरसिया पर अपना शासन घोषित कर दिया। उस समय भोपाल कन्टिनजेंट का एक हिस्सा पहले से ही बैरसिया में मौजूद था। इस फौज के भी सभी सिपाही शुजाअत खाँ से मिल गये। इस घटना की सूचना शीघ्र ही सिकन्दर बेगम को मिल गई थी।

      लेकिन इतिहास ने मोड़ तब लिया जब सिकन्दर बेगम ने 15 जुलाई को भोपाल आर्मी को बैरसिया पर हमला करने का आदेश दिया यह फौज गई तो लेकिन 90 प्रतिशत से भी अधिक आदमी बैरसिया जाकर सुजाअत खाँ से मिल गये। इस स्थिति में सिकन्दर बेगम ने सीहोर फौज के जवानों को बैरसिया पर हमला करने का आदेश दिया लेकिन फौज ने पूरी दमदारी से बैरसिया जाने से इंकार कर दिया।

जब सीहोर फौज से

दो तोप चोरी हो गईं

      फाजिल मोहम्मद खाँ और आदिल मोहम्मद खाँ रियासत भोपाल के मोंजागढ़ी जिला रायसेन के दो विख्यात जागीरदार थे। ये दोनो भाई वैयक्तिक शासन और अधूरे राज के घोर विरोधी थे। इन दोनो भाईयों ने अपनी व्यक्तिगत फौज बना ली थी और वह लगातार इस फौज की ताकत बढ़ा रहे थे। इन भाईयों ने बगावत के दौर में रियासत भोपाल के विभिन्न जिलों का कई बार चक्कर लगाया था। इसी प्रकार ये भाई रियासत भोपाल के आसपास के राजा नवाबों से भी संबंध बनाए हुए थे। भोपाल, सीहोर, बैरसिया आदि और रियासत के विभिन्न स्थानों पर आगे चलकर जो बगावतें हुई उनको संगठित करने में इन दोनो भाईयों का भी विशेष योगदान रहा। भोपाल सैना और सीहोर फौज के विलायती अफगान सिपाही इन भाईयों के विशेष हमदर्द थे। इन भाईयों के राष्ट्रवादी प्रयासों और बहादुरी से प्रभावित होकर रियासत के बहुत से सिपाहियों ने नौकरी छोड़कर इन भाईयों की फौज में नौकरी कर ली थी। 10 जुलाई 1857 को रियासत की फौज के बख्शी साहब के पास अचानक यह सूचना आई कि सीहोर से दो तोपों को किसी ने चुरा लिया है। बख्शी साहब ने फौरन इस चोरी की जांच शुरु कर दी जांच में पता चला कि ये तोपें फाजिल मोहम्मद खाँ के इशारे पर चुराई गई थीं। एक तोप फौज के एक सिपाही से बरामद हुई जिसे उसी समय गिरफ्तार कर लिया गया। उसकी गिरफ्तारी के बाद जो आगे छानबीन हुई तो उससे पता चला कि फाजिल मोहम्मद खाँ बहुत पहले से सीहोर और भोपाल में बगावत की तैयारियाँ कर रहे थे।

       सिकन्दर बेगम को ये रिपोर्ट दी गई कि फाजिल मोहम्मद खाँ भोपाल आर्मी के कमाण्डर इन चीफ, डिप्टी कमाण्डर और कई वफादार फौजी अफसरों को कत्ल करने की योजना बना रहे थे। इसमें शिवलाल, चंदूलाल और फरजंद अली जैसे वफादार के नाम भी सम्मिलित थे।

      फाजिल मोहम्मद खां की योजना बताई गई कि वो सीहोर, भोपाल को लूटकर यहाँ से बागी फौज के साथ देहली की और मार्च करने का इरादा रखते हैं ताकि वहॉ जाकर बहादुर शाह जफर की मदद की जाये।

फाजिल मो. खां देशभक्त पूर्ण कार्यवाही से घबराई बेगम

      इस योजना में सीहोर के 150 सिपाहियों की मिलीभगत की जानकारी स्पष्ट हो गई। क्योंकि फाजिल मोहम्मद खां व आदिल मोहम्मद खां न केवल रियासत भोपाल के फोजियों को बगावत के लिये तैयार कर रहे थे। बल्कि उन्होने रियासत के आसपास कई रियासतों जागीरदारों को भी बगावत की योजना में सम्मिलित कर लिया था जिसका केवल एक उद्देश्य अंग्रेजी राज्य को समाप्त कर देना था। इस बड़ी योजना में वारिस मोहम्मद खाँ भोपाल, इटारसी के नवाब अबू सईद खाँ, आगरा के राजा छत्रसाल, बानपुर के राजा मरदन सिंह, राघोगढ़ के ठाकुर दौलत सिंह, नरसिंहगढ़ के राजकुमार और मोहम्मदगढ़ के नवाब हाफिज कुली खाँ सम्मिलित थे।

      सिकन्दर बेगम को फाजिल मोहम्मद खां से इतना खतरा लगने लगा था कि वह तरह-तरह के आदेश जारी कर रही थी। लेकिन उनके सिपाही बड़ी संख्या में फौज छोड़कर फाजिल मोहम्मद की फोज में शामिल हो रहे थे। कभी सिपाहियों को फौज से निकाल दिये जाने की धमकी दी जाती तो कभी बगावती सिपाहियों को एक सप्ताह में वापस फौज में शामिल होने पर कुछ कार्यवाही नहीं करने का लालच दिया जाता था।

      उन्होने बगावत करने वाले सिपाहियों को बागी के साथ जैसा सलूक करने की धमकी, उनकी सम्पत्ति जप्त करने के आदेश, परिवार वालों को गिरफ्तार करने के आदेश जारी कर दिये थे। इस आदेश के बाद अहमद खाँ आलमबरदार के विरुद्ध कार्यवाही की गई। उनकी पत्नि, बच्चों को गिरफ्तार कर उनकी सम्पत्ति जप्त कर ली गई लेकिन रणबांकुरे राष्ट्रवादी सिपाहियों का उत्साह ठंडा नहीं हुआ।

चुन्नीलाल और भीकाजी जैसे जासूसों से कराई जाती थी बागियों की जासूसी

      भोपाल रियासत में प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन गदर को लेकर सिकन्दर बेगम सतर्क थीं। उन्होने 17 जून 1857 को एक फरमान नवाब उमराव दुल्हा, बाकी मोहम्मद खाँ साहब पूर्व सैनाध्यक्ष रियासत भोपाल को जारी किया जिसमें कहा था कि ऐसे प्रयास किये जायें जिससे बगावत की आग भोपाल में न फैलने पाए। इस आदेश में सभी अधिकारियों से कहा गया कि गदर की रोकथाम के लिये विशेष प्रकरणों में नवाब साहब से सलाह के पश्चात ही आवश्यक कार्यवाही की जाया करे। बेगम साहब ने 18 जून 1857 को एक एलान (उल्लेख गदर के कागजात किताब एवं हयाते सिकन्दरी किताब पृष्ठ 34 के अनुसार) छपवाकर पूरी रियासत में वितरित कराया गया था। जिसमें जिला कलेक्टरों एवं रियासत के अधिकारियों को निर्देश दिये गये थे कि वह सख्ती से निगरानी रखें कि बाहर से कोई बागी भोपाल में दाखिल न होने पाये और अगर कोई बागी रियासत की सीमा में घुस जाता है तो उसको या तो कत्ल कर दिया जाये या बंदी बना लिया जाये। इस आदेश में यह भी कहा गया था कि अगर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नवाब बांदा या नवाब फर्रुखाबाद के सिपाही रियासत की सीमा में घुस आएं तो उनके साथ भी यही कार्यवाही की जाये और इसकी सूचना तत्काल सरकार के पास भेजी जाऐ।

दो जासूसों ने सूचना दी

      इस दौरान सभी सीमावर्ती स्थानों पर पुलिस फोर्स और जासूसों की चौकियाँ स्थापित की गई थी। रास्तों, पुल और घाटों की सुरक्षा के लिये पुलिस फोर्स में बढोंत्तरी की गई थी। यह भी निर्देश दिये गये थे कि जो व्यक्ति रियासत में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाये उसकी सूचना शीघ्र सरकार को भेजी जाये और इस प्रकार के व्यक्तियों की यात्रा और ठहरने के संबंध में शीघ्रता से जांच की जाये।  सारे जागीरदारों को भी हर वक्त चौकन्ना रहने के आदेश दिये गये थे। सिकन्दर बेगम ने व्यापक स्तर पर जासूसी विभाग की स्थापना की थी तथा ख्वाजा मोहम्मद अकरम (उल्लेख-गदर के कागजात की सूची जिन्द 1 के अनुसार) को इस विभाग का प्रमुख बनाया गया। इस विभाग का कार्य बागियों से संबंधित सूचनाएं एकत्रित करना और ख्वाजा साहब के द्वारा सरकार तक पहुँचाना था। ख्वाजा साहब के दो जासूस भीकाजी और चुन्नीलाल भोपाल नगर में अत्याधिक सक्रियता से जासूसी करते थे। ये दोनो जासूस पल-पल के परिवर्तनों और घटनाओं की सूचनाएं ख्वाजा साहब तक पहुँचाते थे।

      इसके अतिरिक्त भोपाल और सीहोर से संदेहास्पद व्यक्तियों को रियासत से निकाल दिया गया था। 24 जुलाई 1857 को आम घोषणा (सिकन्दर बेगम का आदेश सम्मिलित जिल्द-3, 24 जुलाई 1857 एवं हयाते सिकन्दरी पृष्ठ-24 के अनुसार) के द्वारा पूरी रियासत में सीसा और बारुद के क्रय-विक्रय पर प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि इसी तिथि के आसपास कुछ सिपाहियों ने जुमेराती दरवाजा भोपाल के पास स्थित कुछ दुकानों से भारी मात्रा में सीसा और बारुद खरीदा था। जिसके संबंध में बेगम साहिबा को रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी कि सीसा और बारुद की यह खरीदारी फाजिल मोहम्मद खाँ की फौज के लिये की गई थी। इन व्यवस्थाओं के अतिरिक्त बेगम साहिबा ने अपने एक भरोसेमंद अधिकारी मुंशी भवानीप्रसाद, वकील रियासत भोपाल को सीहोर का समन्वय अधिकारी नियुक्त कर दिया था और उनकी मदद के लिये कई और अधिकारी नियुक्त किये गये थे जिनमें मुंशी चुन्नीलाल, लाला चम्मेलाल और लाला  रामदीन की एक विशेष स्थिति थी।.
.

हमारा ईपता - fursatma@gmail.com यदि आप कुछ कहना चाहे तो यहां अपना पत्र भेजें ।

खूब बिक रहे सुअर की चर्बी से बने फुज्‍जैन के तोश, हर दिन सुअरों की क्विंटलों चर्बी निकल रही, जिसे खरीद रहे बेकरी वाले, बड़ी कम्पनियाँ भी खरीदती हैं

सीहोर 11 जनवरी (आनन्‍द भैया गांधी)। गंभीर सोच का विषय है 1857 में जब पूरा देश गोरे अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हुआ था तो मंगल पाण्डे जैसे देश भक्त के साथ हर एक हिन्दुस्तान का नागरिक इसलिये कंधे से कंधा मिला रहा था क्योंकि अंग्रेजों ने हमारे धर्म को भ्रष्ट करना शुरु कर दिया था..... उन्होने जानबूझकर हिन्दुओं के  लिये पूय गौमाता के गौमांस से निकलने वाली चर्बी और मुसलमानों के लिये नफरत का प्रतीक सुअर की चर्बी का उपयोग करके कारतूस बनाये थे.... ऐसे कारतूस जिन्हे सिर्फ मुँह से खोला जा सकता था....उनमें गाय और सुअर की चर्बी लगी थी....जब देश के क्रांतिकारियों को, नागरिकों को, सिपाहियों को पता चला तो उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल लिया......यह हमारे धर्म की बात थी..... ईसाई जाति तो मांसाहारी ही है लेकिन हिन्दुस्तान की सरजमीं पर ऐसी संस्कृति विद्यमान नहीं थी....तब धर्म की रक्षा के लिये, हमारे देश की संस्कृति की रक्षा के लिये हर एक नागरिक इंकलाब जिंदाबाद के नारे बुलंद कर रहा था...सिपाहियों ने कारतूस फेंक दिये थे और अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिये उठ खड़े हुए थे...सिर्फ अपने धर्म की रक्षा के लिये....।

      हर एक नागरिक, मनुष्य की जीवन सत्ता उसके धर्म से जुड़ी हुई है, धर्म ही उसे सही दिशा, सही ज्ञान और अंत में अच्छी सद्गति दिखा सकता है...।

      आज हम हमारे पूर्वजों, हमारे क्रांतिकारियों के 200 साल तक के सतत संघर्ष के बाद आजाद हुए....अपने धर्म की रक्षा के लिये जिन्होने हंसकर फांसी पर झूल गये और सीने पर गोलियाँ खाई आज हम उन्ही धर्मात्माओं-हुतात्माओं के दम पर आजाद हैं।

      लेकिन धीरे-धीरे आजाद भारत में हमारे ही बीच बैठे व्यापारियों ने ऐसी चाल चली कि हमारा धर्म भ्रष्ट करना शुरु कर दिया। हम मुख्यत: 1857 में जिस चर्बी वाले कारतूसों के कारण पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हो गया था उसी चर्बी को लेकर आज एक तथ्यात्मक समाचार आपके लिये लायें हैं.....।

      इन दिनों नगर में जो सबसे खस्ता और अच्छा ''तोश'' बनकर बाहर से आ रहा था वह एक धार्मिक नगरी से आ रहा है जिसका नाम हम कुछ बदलकर लिखेंगे ''फुज्‍जैन''। फुज्‍जैन से आ रहा तोश बहुत खस्ता है, और यह महंगा भी है लेकिन इसे बहुत लोग पसंद करने लगे हैं और खाते भी हैं। यह इतना अधिक खस्ता क्यों होता है जब हमने इसकी जांच की तो हमारे पैरों तले से जमीन खिसक गई और धीरे-धीरे रहस्य की ऐसी पर्ते खुलीं की फिर आप तक यह बात पहुँचाना जरुरी हो गया।

      असल में फुज्‍जैन में बनने वाले तोश या बेकरी के सामानों में खुलकर सुअर-भैंस-पाड़े-बकरे की चर्बी का उपयोग होता है। इसमें सर्वाधिक अच्छी, सस्ती सुअर की ही चर्बी मिलती है और सुअर की चर्बी का उपयोग सारे बेकरी वाले करते हैं। असल में तोश बनाने में जितनी मशक्कत है, उसे खस्ता करने में भी उतनी ही आफत। जब तक अधिक मात्रा में इसमें घी या तेल नहीं डाला जाता तब वह अच्छी तरह खस्ता नहीं बन पाता, इसलिये फुज्‍जैन वाले लोग तोश में सुअर की चर्बी खूब डालते हैं और उसी से पूरा सामान बनाते हैं।

      बेकरी पर बनने वाले बिस्कुट हो या केक, पेस्टी हो या कुछ और हर सामान में बाजार में मिलने वाला डालडा घी, या सोयाबीन तेल अथवा शुध्द घी को नहीं डाला जाता....उसमें तो मांस चर्बी वाला तेल ही डाला जाता है, क्योंकि यही सबसे सस्ता पड़ता है। हालांकि सब बेकरी वाले यही करते हैं ऐसी जानकारी नहीं है। हो सकता है कुछ और भी उपयोग होता हो लेकिन चर्बी का तेल भी उपयोग होता है ऐसी जानकारी अवश्य है। तो आगे से सावधान रहिये फुजैन के प्रसिध्द तोश खाने के पहले।

अब दूसरे ढंग से यही बात सोचिये...

      हर दिन सिर्फ सीहोर नगर में ही करीब 10-12 सुअर कटते हैं। यदि हर सुअर को 1 क्विंटल को माना जाये तो उसमें से 38 से 40 किलो चर्बी निकलती हैं मतलब 10 सुअरों से 4 क्विंटल मतलब 400 लीटर चर्बी का तेल निकलता है। इसके अलावा कटते हैं करीब 40-50 से अधिक बकरे, इनमें से हिसाब को छोड़कर सीधे अंदाज से लेते हैं कि करीब 200 लीटर से अधिक चर्बी बकरे की निकलती है। और भैंस-पाड़े भी हर दिन करीब 6 से 10 तक कटते हैं जिनमें से 50 से 100 लीटर चर्बी निकलती है। कुल मिलाकर हर दिन 700 से 800 लीटर चर्बी सीहोर नगर में ही निकलती है इतना अधिक चर्बी के तेल को क्या नाले में बहाया जाता है ? या बेच दिया जाता है ? आप भी सोचते जाईये....? इसे बेचा ही जाता है, वह भी अच्छे दाम पर।

भरते जाते हैं चर्बी से पीपे

      सीहोर में हर दिन जानवर काटने वाले लोग उनसे निकलने वाली चर्बी को एक पीपे में भरते जाते हैं और जैसे ही यह दो-तीन क्विंटल एकत्र कर लेते हैं अपने स्तर पर भोपाल या बैरागढ़ जाकर बेच आते हैं। स्थानीय लोग भी इनसे आये दिन चर्बी खरीदते रहते हैं।

कैसे निकलती है चर्बी, किसकी चर्बी कैसी होती है ? चर्बी को कहते हैं जाल

      सबसे पहले बात करते हैं बकरे की। जो बकरा बदिया होता है, उसमें सर्वाधिक चर्बी रहती है, एक 50 किलो के बकरे में करीब 10 किलो चर्बी का जाल निकलता है। मांस काटने वाले जानवर के शरीर से चर्बी को जाल कहकर अलग करते हैं। यह थोड़ी बहुत मेहनत और अनुभव के आधार पर आसानी से अलग कर दी जाती है। चर्बी का जाल सामान्य देशी बकरे में 15 किलो के बकरे में मात्र 300 ग्राम निकलता है, यदि दाना खाया हुआ अच्छा बकरा है तो सवा किलो तक निकलती है। भैंसा या पाड़े में चर्बी का जाल मुर्रा भैंस में 13 से 15 किलो का निकलता है जबकि मरी भैंस में 5 किलो तक निकल जाती है। बकरे की चर्बी का घीस देशी घी की तरह दानेदार होता है, जबकि भैंस की चर्बी डालडा घी की तरह जमती है।

      लेकिन चर्बी के मामले में सुअर तो वरदान है। इसमें 40 प्रतिशत चर्बी होती है, जितना पुराना होता है उतनी अधिक चर्बी निकलती है। मसलन इतनी अधिक चर्बी इसमें होती है कि कोई अंग कट जाये तो अंदर से सफेद अंग दिखता है जबकि खून बहुत कम निकलता है। सुअर चर्बी के मामले में 100 किलो का सुअर मे 40 किलो चर्बी का जाल रहता है, हर अंग से चर्बी निकलती है। इसकी चर्बी खोपरे की तेल की तरह होती है पिघलाओ तो तेल और ठंडी होने पर जम जाती है। सफेद रहती है। चम्मच से काटकर इसकी चर्बी या घी निकालना पड़ता है, इतना जम जाता है।

हर मंगल और रविवार को

      हर मंगलवार और रविवार को मुख्यत: सुअर कटते हैं और हाट बाजार में बिकते हैं, सारे ही हाट बाजार में मांस बिकता है। जबकि हर दिन सुअर  सीहोर से कटकर भोपाल बैरागढ़ जाता है, लेकिन चर्बी रह जाती है। इसकी चर्बी भी अच्छे दाम पर बिकती है। मुख्यत: चर्बी के मामले में दिल्ली और जबलपुर चर्बी जाने की सूचनाएं सर्वाधिक हैं। लेकिन अन्य लोग भी इसका उपयोग करते हैं। साबुन बनाने में भी इसका उपयोग होता है।

      तो अब आप ही सोचिये कि पूरे देश में मांसाहारियों की संख्या सर्वाधिक है, विश्व में तो है ही, और उससे निकलने वाली चर्बी आखिर कहाँ जाती है ? कुछ पैकिंग के सामान जो तले हुए आते हैं उनमें वेजिटेबल आईल लिखा रहता है, वह क्या होता है हमें इसकी जानकारी नहीं है।

 

 

 

खास बातें

      **  एक 100 किलो के सुअर में 38-40 किलो निकलती है चर्बी

      ** बदिया बकरा जो 22 किलो के आसपास हो तो उसमें 4 किलो निकलती है चर्बी, 50 किलो का बकरा करीब 10 किलो चर्बी देता है।

      ** भैंस-पाड़े की चर्बी सर्वाधिक निकलती है, मरी भैंस भी 5 किलो चर्बी देती है।

      ** मुर्रा भैंस में 13 से 15 किलो निकलती है चर्बी।

      ** लाखो जानवर हर दिन कटते हैं और कई लाख लीटर चर्बी निकलती हैं आखिर उसका क्या होता है उसका ? सोचिये

क्योंकि शायद यही चर्बी आप भी हर दिन खा रहे हैं...

 

 

  

चर्बी का मतलब तेल

      अरे भाई मक्खन देखा है आपने या फिर घी देखा होगा,  हाँ ठीक वैसी ही चर्बी होती है, थोड़ा रुप-रंग अलग होता है लेकिन सुअर-पाड़े,बकरे के शरीर से निकलने वाली चर्बी का एक टुकड़ा काटकर जैसे ही गर्म तवे  पर रखते हैं वह मक्खन या जमे हुए घी की तरह पिघलकर तेल में बदल जाता है.....एक बार मक्खन थोड़ी देर से पिघलेगा लेकिन चर्बी तो गर्म करते ही पिघल जाती है।

      अब सोच लीजिये कितना आसान है चर्बी का तेल बनाना.... और क्या-क्या होता होगा इसका.. मतलब चर्बी का...., खूब सोचिये.. टालिये मत....यह आपकी संस्कृति, धर्म का सवाल है......।

 

 

 

 

 

विदेशों में तो यह भी बनता है

चाकलेट, च्विंइगम, साबुन, तोश, ब्रेड, बाजार में बिकने वाले तले हुए सामान के पाऊच चिप्स आदि.... शायद और भी बहुत कुछ.
.

हमारा ईपता - fursatma@gmail.com यदि आप कुछ कहना चाहे तो यहां अपना पत्र भेजें ।