नवरात्र उत्सव के दौरान देवी माँ की आराधना के लिये साधकों द्वारा तरह-तरह की साधना करने के क्रम में ही एक क्रम आरती और आरती के साथ नृत्य करते हुए माँ को मनाने का प्रयास का नाम ही गुजरात में गरबे के रुप में स्थापित है। आज भी गुजराती गरबा करने वाले अपनी एक धुन में गरबा करते हैं, उनकी निगाह, उनकी ताल-लय, उनके गरबे के भजन सबकुछ सिर्फ या तो माँ को समर्पित नजर आती है या फिर स्वयं में कहीं खोई हुई प्रतीत होती है। वह किसी को दिखाने की होड़, कला की नुमाईश, कमर की लटके-झटके या श्रृंगार के नाम पर किये जा रहे फूहड़ शरीर प्रदर्शन से कोसो दूर रहती है....अभी इतनी सात्विकता शेष बची है। गुजरात की धरती परम्पराओं की, स्वाभिमान की, गरिमा पूर्ण जीवनशैली की और आत्माभिमान की धरती है, वह जहाँ वीरता-साहस की धरती है वहीं संस्कृति के प्रति समर्पण भाव की धरती भी है। शायद इसीलिये संस्कृति और परम्पराओं से सुसज्जित वहाँ गरबा महोत्सव आज भी देवी की आराधना का एक साधन मात्र ही है।
लेकिन आज इसी गरबें का फूहड़ रुप हमें देखने को मिल रहा है। प्रारंभिक रुप से गरबे की नकल तो हमने की, लेकिन माँ की आराधना की इस विधि को हमने चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। फिर कुछ व्यापारिक बुध्दी के लोगों ने इसका दुरुपयोग किया और हमारी भावनाओं से खिलवाड़ शुरु कर दिया, गरबा आराधना कम, प्रतियोगिता यादा बना दी गई। इन्ही व्यापारियों ने गरबे के बड़े-बड़े आयोजन शुरु कर दिये। तब गरबा करने वालों को यह व्यापारी रुपये का लालच, पुरुस्कारों का लालच और मंच-सम्मान का लालच देकर बुलाने लगे। इनके मन में कहीं भी नवरात्र में भगवती की आराधना करने की लालसा नहीं थी, इनकी लालसा कुछ और ही थी। इधर इन्ही व्यापारियों ने हमें गरबा देखने बुलाकर रुपये वसूलना शुरु कर दिये। व्यक्तिगत रुप से जो गरबा गुजराती बालाएं किया करती थीं आज वह बाजार में इन व्यापारियों ने बड़ी ही चालाकी के साथ बेचना शुरु कर दिया। गरबे की एक रात 250 रुपये से लेकर 500 और 1000 रुपये तक बिकने लगी। अब गरबा बिकाऊ माल हो चुका है और वह गरबे की साधना करने वाले साधक, अब साधक नहीं बल्कि नचैया हो गये हैं जो पुरुस्कारों की होड़ में अपनी मण्डली बनाकर नाचते हैं और इसकी कीमत भी वसूलते हैं। गरबा अब देवी माँ को प्रसन्न करने के लिये नहीं होता बल्कि रुपये कमाने के लिये होता है। व्यापारी गरबा आयोजकों ने गरबे को बिकाऊ बनाने के चक्कर में जाने के स्वरुप को भद से भद्दा कर दिया है।
बल्कि इन व्यापारियों ने हद तो तब कर दी जब पहले-पहले तो कथित रुप से फिल्मी माडल बुलाई गईं और उन्हे नचवाया गया, इनका नाच देखने भीड़ एकत्र हुई लेकिन अब एक आयोजक ने तो भोपाल-बैरागढ़ की एक काल गर्ल को इस आयोजन में बुलाकर अपने ग्राहकों के सामने परोस दिया। इस काल गर्ल को भी फिल्मी हस्ती और मॉडल के रुप में प्रचारित किया गया, मॉडल गरबा आयोजन की मुख्य अतिथि बनी, समाजसेवियों के साथ बैठी...मादक मुस्कुराहट बिखेरती रही और जब इसके कुछ पुराने ग्राहक भी इसी गरबे में इसे नजर आये तो यह मुँह छुपाकर इधर-उधर देखने लगी बल्कि छुप भी गई....ऐसी कालगर्ल को बुलाने की आखिर आयोजक को क्या जरुरत पड़ रही थी...सिर्फ भीड़ खेंचने और ग्राहकों को बुलाने के लिये ही ना....इस कालगर्ल का डांस दिखाकर लोगों से रुपये कमाने के अलावा इस आयोजक के मन में क्या कुछ और बात हो सकती है....। क्या यह आयोजक धार्मिक कार्यक्रम का आयोजक कहा जा सकता है या बार डांस क्लब के संचालक के रुप में इसे देखा जाना चाहिये....?
आराधना से लेकर दिखावे और दिखावे के बाद आज जिस गर्त में गरबा आ गया है उसके पीछे कुछ व्यापारिक बुध्दी और धर्म के नाम पर खिलवाड़ करने वाले लोगों का गंदी मानसिकता ही एक मात्र कारण नजर आती है। कल तक गरबा करती नन्ही बालिकाएं सहजता-सरलता से अपनी प्रस्तुति दे रही थीं....आज वह इन आयोजनों की चंकाचौंध में कहीं खो गई है। आज गरबे के लिये जितने प्रकार का श्रृंगार आवश्यक हो गया है...उसमें आराधना कहीं नजर नहीं आती।
और हाँ ऐसे कमाऊ आयोजकों की आपसी लडाईयाँ....आपसी द्वंद....भी अब नजर आने लगे हैं। कैसे आयोजन के टिकिट बेचे जायें...कैसे ग्राहकी पैदा की जाये....कैसे कहीं की प्रसिध्द माडल का आकर्षण कार्यक्रम में बढ़ाया जाये....कैसे बड़े रुपये कबाड़े जायें सिर्फ इसी ध्येय का नाम गरबा महोत्सव के रुप में अब प्रचलित हो गया है। जिसमें आयोजक अपने ग्राहकों के समक्ष पहले पहल तो बुलाये गये गरबा दलों से नृत्य कराते हैं और फिर उपस्थित ग्राहकों को भी गरबा करने की प्रेरणा देकर इस कथित धार्मिक कार्य में झोंक देते हैं....। कल चर्चा चल पड़ी कि एक गरबा आयोजक ने दूसरे गरबा आयोजक के यहाँ विद्युत मण्डल की रेड पड़वा दी। ऐसा ही एक किस्सा सुनने में आया जिसमें दानदाताओं के नाम पर राजनीति होती रही और एक आयोजन ही स्थगित करना पड़ा।
कुल मिलाकर गरबा महोत्सव, एक विशुध्द व्यापारिक आयोजन हैं, जिसमें कई बच्चे अनजाने में आयोजकों की चालबाजी के शिकार होकर भीड़ जुटाने के लिये एक आकर्षण का पात्र बन जाते हैं...वह भक्ति रस और देवी आराधना से कोसों दूर रहकर सिर्फ लोगों की वाह-वाही के लिये अपनी प्रस्तुति देते हैं, और यदि गरबा करने वाले मिल गये तो ठीक वरना कथित मॉडल या 1500-2000 रुपये में भोपाल-बैरागढ़ की कालगर्ल तो है ही।
भगवान बचाये ऐसे गरबा आयोजनों से...और ऐसे आयोजकों से जो माँ की आराधना को रुपये से तौलने में जुटे हुए हैं। दशहरा पर्व की सभी को शुभकामनाएं।
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Thursday, October 9, 2008
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