Monday, June 23, 2008

हाय रे भैया पिंड छूटा : बोले अनेक शिक्षक

सीहोर 22 जून (नि.सं.)। सेवा कालीन शिक्षक प्रशिक्षण शिविर ग्रीष्म अवकाश के दौरान जिले भर में चलाया गया, जहाँ जिला मुख्यालय के प्रमुख विद्यालयों में गंज स्थित सुभाष विद्यालय, महारानी लक्ष्मी बाई कन्या विद्यालय, स्वामी विवेकानंद विद्यालय मे प्रशिक्षण चल रहा था वहीं अन्य स्थानों पर भी यह कार्य जारी था। 21 जून को जब यह प्रशिक्षण समाप्त हुआ तो प्रशिक्षण लेने वाले अधिकांश शिक्षकों के मुँह से बरबस ही निकल हाय-रे भैया जान बची, पिंड छूटा....।

असल में ग्रीष्म कालीन प्रशिक्षण शिविन की व्यवस्थाओं का इसमें कोई दोष नहीं है, एक से बढ़कर एक अनुभवी और प्रशिक्षित प्रशिक्षकों ने संस्थाओं में प्रशिक्षण दिया। प्रतिदिन प्रशिक्षक आये और उन्होने अपने विषय की जानकारी दी, लेकिन जो शिक्षक प्रशिक्षण लेने आ रहे थे वह इससे सरोकार रखने को तैयार ही नहीं थे...।

कुछ प्रशिक्षण केन्द्रों में तो प्रशिक्षण लेने आये शिक्षकों ने गड़बड़ी फैलाने में बच्चों को भी पीछे छोड़ दिया। यह कभी पान की पीक कोने में थूक देते, कभी पाऊच कहीं भी डाल देते, कुछ खाने का सामान फेंक देते, इन सामान्य बातों से बढ़कर एक खास बात यह भी रही अधिकांश पुरुष शिक्षक भागने में सबसे यादा आगे रहते थे, वह एक घंटे भर से अधिक रुकने को तैयार नहीं रहते थे, और प्रयास करते थे कि जैसे ही लोगों की निगाह हटे और वह भाग जायें। शिक्षकों के भाग जाने से प्रशिक्षण शिविर में अव्यवस्था हो जाती थी। उपस्थिति दर्ज कराकर ऐसे कई शिक्षकों का भागना आम बात हो गई थी। स्वामी विवेकानंद विद्यालय में तो इस संबंध में जब इस संवाददाता ने निरीक्षण किया तो पता चला कि यहाँ शिक्षकों को रोकने के लिये बाहर गेट ही बंद करना पड रहा है।

गत वर्ष तो इन शिक्षकों के लिये भोजन आदि की व्यवस्थाएं की गई थी लेकिन इस बार इसके स्थान रुपयों का वितरण किया गया।

महिला शिक्षिकाओं ने इसे पिकनिक स्पाट बना लिया था। वह प्रशिक्षण क्या लेती थी बल्कि अपने बच्चों को साथ ले आया करती थीं, और घंटे-दो घंटे समय काटकर, कभी बच्चों को खिलाने में व्यस्त रहकर समय काटती और चली जाया करती थी। इस प्रकार शिक्षक ही नन्हे बच्चों की तरह पढ़ाई बचते नजर आते रहे और 21 जून को प्रशिक्षण शिविर समाप्त हो गया।

भारतीय अस्मिता का प्रतीक है वीरांगना दुर्गावती का जौहर

..........गढ़ा मंडला की रानी दुर्गावती का बलिदान, मध्यकालीन भारतीय इतिहास की सबसे करुण गाथा है। सोलहवीं शताब्दी का भारत 'अकबरी अपहरणवाद' और 'आसफी अतिमणवाद' के खूनी खंजरों से आहत, भारत के रूप में दिखायी देता है। अकबर ने जोधाबाई व अनेकों नारियों के अपहरण से यही म प्रारम्भ किया था। दुर्गावती का बलिदान-भारत के सम्पूर्ण वनवासी समाज की अस्मिता पर मुगलों, पठानों, ताजियों द्वारा किए गए निर्लज्ज आमण व अत्याचार की क्रूर कथा है। रानी दुर्गावती के बलिदान के आस-पास 16वीं शती के बलिदानों का एक विचित्र ताना बाना बुना हुआ है.........
दुर्गावती के बलिदान का म तो, चंदेल वंश के अंतिम स्थानों उ.प्र. के महोबा, कालिंजर से ही प्रारम्भ हो जाता है। जबलपुर के अतिरिक्त डिंडोरी, मंडला, छिंदवाड़ा, नरसिंहपुर, दमोह, बालाघाट जिलों तथा चंद्रपुर (महाराष्ट्र) से इस बलिदान का अत्यन्त प्रेरक सम्बंध है। दो माह तक दमोह की जनता ने आसफ खां को रोका, प्रतिकार किया, अत्याचार सहे। इस पर शोध नहीं हुआ है। दमोह से लेकर गढ़ा तक हुए अत्याचारों का सिलसिला व जन प्रतिकार पर शोध बाकी है।
मंडला जिले की जनता ने इस बलिदान को स्मरण रखा। अनेकों लोक कथाओं, गीतों का सृजन कर वे सैंकड़ों वर्षों से इसे गुनगुनाते रहे हैं। बलिदान दिवस समारोहों ने इस जिले की उपेक्षा की है। अनुसूचित जनजाति की वीर रानी की स्मृति, गौरवपूर्ण बलिदान की उपेक्षा, इस देश की राष्ट्रीयता का अपमान है।
दुर्गावती, प्रतापी संग्राम शाह की पुत्रवधु तथा वीर दलपत शाह की पत्नी थी। वह आठवीं शताब्दी से भारत की राजनीति में, अपनी वीरता के कीर्तिमान स्थापित करने वाले, चंदेल वंश की पुत्री थी। महोबा (उ.प्र.) के चंदेल राजा की पुत्री होने के कारण, बाल्यावस्था से ही उसे शस्त्र संचालन व युध्द विद्या का प्रशिक्षण मिला था। दिल्ली की गद्दी पर बैठे, अत्याचारी शासकों ने, पूरे उत्तर मध्यभारत में छलकपट, लूट, बलात्कार, अपहरण, अतिमण का, 300 वर्षों से सिलसिला चला रखा था। परन्तु मंडला के राज्य पर उनके प्रत्येक आमण का यहां की प्रजा ने मुंहतोड़ उत्तर दिया था। अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुलफजल ने स्वीकार किया है कि मंडला के राज्य में विदेशी मुस्लिम आमणकारियों का प्रवेश नहीं हो सका था। दुर्गावती के विषय में तारीखे अल्फी के मुस्लिम लेखक ने लिखा है गढ़ मंडला का प्रदेश जंगलों तथा पहाड़ियों से ढंका था और इस्लाम के अभ्युदय से लेकर, इस समय तक हिन्दुस्तान का कोई शासक उसे जीत नहीं पाया था। इस समय रानी दुर्गावती नाम की एक औरत उस पर राज्य करती थी और उस देश के सभी कुत्ते उसके भक्त थे।
सन् 1540 में अपने विवाह के उपरान्त दुर्गावती ने अपने वीर पति के साथ राज्य के प्रशासन व विस्तार में सयि रूप से भाग लिया था। संग्रामपुर व आसपास के क्षेत्र में उसके प्रमाण बिखरे पड़े हैं। दलपत शाह की मृत्यु के उपरान्त, रानी ने वीरतापूर्वक शासन किया। सन् 1555 से 1560 तक उसने मालवा के सुल्तान बाजबहादुर तथा मियाना अफगानों के आक्रमणों को विफल किया। अकबर ने उसके दरबार में गोप कवि को भेजकर, दुर्गावती के दीवान आधार सिंह कायस्थ (आधारताल का निर्माता) को अपनी और मिलाने का कूटनीतिक प्रयास किया पर उसमें असफल रहा।
सन् 1564 के मार्च माह में अकबर ने अपनी युध्द यात्राएं प्रारम्भ कीं तथा क ड़ा मानिकपुर के सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां (आसफ खां) को दुर्गावती के राज्य पर आमण करने भेजा। अप्रैल 1564 में दमोह पहुंचकर आसफ खां ने अकथनीय अत्याचार किए। क्षत्रियों की एक जाति को मुड़हा ठाकुर और शिल्पी जाति को चमरलढ़िया बनाया। दमोह के विशाल तालाब को जिसका चंदेल युग में निर्माण हुआ था व उसके आसपास विशाल मंदिर थे तोड़ डाला। मंदिरों को तोड़कर ईदगाह बना दी। वह तालाब आज तक फुटेरा तालाब कहलाता है। उसके आस-पास खंडित मूर्तियों के, सती स्तम्भों के टुकड़े, विशाल खंडित विष्णु वाराह की प्रतिमा, दमोह नगर की अधिष्ठात्री देवी महामाया (महामाई) की खंडित मूर्तियां, इन अत्याचारों के प्रमाण के रूप में आज भी उपस्थित हैं। दमोह की जनता ने दो माह तक सयि प्रतिकार किया। अधिकांश जनता जंगलों में चली गई। हजारों हिन्दुओं की हत्या कर गाजीमियां बन बैठे, मुगल सरदार को जनता ने ही मार डाला। अभी सन् 1946 तक एक पहाड़ी का नाम ही गाजीमियां की पहाड़ी था। फकीरों और व्यापारियों के द्वारा दुर्गावती के राज्य में अफवाहें फैलाकर, गुप्त सामरिक सूचनाएं एकत्र कर, आसफ खां, दो माह बाद जबलपुर की ओर बढ़ा। कारूंबाग (जबेरा) सिंगौरगढ़, गढ़ा में युध्द हुए। अंतिम युध्द जबलपुर की मंडला की सीमा पर नर्रई नाला पर 23 जून 1564 को हुआ। नाले में बाढ़ आ जाने से रानी सुरक्षित स्थान पर नहीं जा सकी। विजयी होने पर भी रात्रि में धोखे से आमण कर, आसफ खां ने रानी को कपटपूर्वक पराजित किया। परन्तु वीर रानी ने अपने हाथ से ही अपना प्राणांत कर, अपने शील व स्वाभिमान की रक्षा की। इस युध्द में कानुर, कल्याण, वखीला, खान हान, शम्सखान मियाना, मुबारक खान, बलूच, चमणि कलचुरि, अर्जुनदास बैस, मानब्राह्मण, महारख ब्राह्मण, जगदेव आदि वीर मारे गए। इन सभी के परिवार चौरागढ़ में थे।
दो माह बाद संभवतया सितम्बर सन् 1564 के अंत या अक्तूबर के प्रारंभ में आसफ खां ने नरसिंहपुर जिला में स्थित, चौरागढ़ की राजधानी पर आमण किया। यहां रानी का पुत्र वीरनारायण युध्द करते हुए मारा गया। वीरांगनाओं ने जौहर करने की ठानी। चौरागढ़ का जौहर मध्यकालीन भारतीय इतिहास का एक मात्र ऐसा जौहर है, जिसमें हिन्दू महिलाओं के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं ने भी अपने शील व सम्मान की रक्षा हेतु जलती चिता में बैठकर आत्माहुति दी थी। भोज, कायस्थ तथा मियां भिखारी ने इस जौहर की व्यवस्था की थी व स्वयं लड़ते हुए शहीद हुए थे। इस जौहर में रानी दुर्गावती की बहिन कमलावती व पुत्रवधु (वीर नारायण की पत्नी) को आसफी सेनाओं ने जीवित पकड़ लिया व दिल्ली दरबार में अकबर के हरम भेज दी गईं।
आसफ खां का चौरागढ़ में आवागमन बना रहा। सन् 1566 में मधी कासिम खां की सेना से लूट के माल के बंटवारे पर युध्द हुआ, पर आसफ खां ने संधि कर ली, क्योंकि अकबर द्वारा चित्तौड़ के विरुध्द महाभियान के लिए इस्लामी ताकतों की एकता का अभियान चलाया जा रहा था।
बलिदानी रानी की स्मृति को किसी जाति या प्रदेश की सीमा में बांधना अन्याय है। उसके स्मरण को अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त होना चाहिए। वह सशस्त्र प्रतिकार की परम्परा स्थापित करने वाली श्रेष्ठ बलिदानी नारी थी। भारतमाता मंदिर, हरिद्वार में दुर्गावती की मूर्ति की स्थापना पर विचार हो रहा है।
रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस का श्री गणेश करने वाले नेताओं ने चौरागढ़ के इस राष्ट्रीय जौहर को कोई महत्व नहीं दिया, क्योंकि इससे आमणकारी अकबरी अपहरणवाद व आसफी अतिमणवाद की कलई खुल जाती है।
भोपाल के विशाल आदिवासी अनुसंधान संस्थान जो 34, श्यामला पहाड़ी पर स्थित है, उसका नामकरण बलिदानी दुर्गावती के नाम पर किया जाना चाहिए। राजधानी भोपाल व प्रत्येक नगर, कस्बों में दुर्गावती का बलिदान केवल इसलिए भुला दिया गया कि वह वनवासी (आदिवासी) जाति की थी।