Thursday, October 16, 2008

टेसू और झांझी की धूमधाम से हुई शादी,

सीहोर 15 अक्टूबर (नि.सं.)। दशहरा पर जले रावण के साथ ही एक और लोक प्रथा को मनाते यहाँ छल्ला-बल्ला के गीत गाते 'मेरा टूसे यहीं अड़ा खाने को मांगे दहीबड़ा' बच्चों में उत्साह का संचार देखने को मिलता है। गंज व ग्वालटोली के बच्चों की टोलियाँ टेसू बनाकर नगर भर में घूमती हैं और कुछ बालिकाएं भी झांझियाँ बनाकर उसे सजा संवारकर निकल पड़ती हैं। कल टेसू रावण जिस लकड़ी से जलता है उसी लकड़ी को एकत्र करके बनाया जाता है । शरद पूर्णिमा के अवसर लडक़ों के टेसू और लड़कियों की झांझी का विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ। बच्चों ने गोट मनाई और इस प्रकार 5 दिवसीय टेसू और झांझी का विवाह उत्सव सम्पन्न हो गया।

      मालवा की लोक संस्कृति और बुंदेलखण्ड में टेसू की परम्परा भी विद्यमान है। सीहोर चूंकि मालवा क्षेत्र से जुड़ा हुआ है और गंज में विशेषकर बुंदेलखंड का यादा प्रभाव है इसलिये यहाँ भी इस संस्कृति और परम्परा का चलन है। गंज क्षेत्र में इसका सर्वाधिक प्रचलन है। इस वर्ष भी टेसू और झांझी बनाने वाले बच्चों का उत्साह कम नहीं था बल्कि कुछ नये बच्चे भी इस बार नजर आये। बच्चे रावण जल जाने के बाद उसकी लकड़ियों और पिंचियों से आकर्षक टेसू बनाते हैं और सुन्दर सजाकर उस पर दीपक लगाते हैं। टेसू का मुँह भी बनाया जाता है। इसी प्रकार बालिकाएं भी एक मटकी को रखकर उसकी झांझी बनाती हैं। यह एक सुन्दर युवती मानी जाती है। 'लाल झण्डी हरी झण्डी, उसमें बैठी झेंझी रानी, क्या पल्लु झलकाये रही' के सुमधुर लोकगीत यहाँ प्रीति, रिंकी, सपना, भूरी, गुड़िया, रानू, आशा प्रजापति, बिट्टु, नीतू, भारती, रानी आदि बालिकाएं अपनी-अपनी झेंझी के साथ सुनाने में हिचकती नहीं बल्कि उत्साह से सुनाया करती हैं। यह बालिकाएं गंज के ग्वालटोली व अन्य क्षेत्रों में विगत पाँच दिनों लगातार निकलीं। अपने झेंझी रानी का मुखड़ा दिखाने के नाम पर यह अच्छे रुपये बटोरती रहीं। झेंझी की मुँह दिखाई दुल्हन की मुंह दिखाई से कम नहीं होती, और फिर बच्चों के इस    खेल में आम नागरिक भी सहयोगी हो जाते हैं और अपनी तरफ से इन बच्चियों को कुछ ना कुछ उपहार राशि दिया करते हैं।

      खासतौर से बालकों की आवाज अवश्य आकर्षण पैदा करती है, उनका उत्साह भी देखते ही बन रहा था। बालकों में भी दीपक बंशकार, राजेश बंशकार, राहुल राठौर, दीपक राठौर, आकाश जोगी, जितेन्द्र, रोहित, राजा, रुपेश, गोलू, योगेश, संतोष आदि अपने-अपने टेसू लेकर घूमते नजर आये। यह सभी विद्यार्थी हैं और कक्षा 4 से लेकर 8 तक के हैं। शाम 6-7 बजते ही यह टेसू लेकर उसमें दीपक जलाते और निकल पड़ते नगर भर में, रात 10 बजे तक पूरे नगर में अपने टेसू को घुमाकर लाते। इन्हे टेसू के गीत सुनाने में बड़ा आनन्द प्राप्त होता है। बाल मन गीत सुनाते जाते हैं लेकिन हंसी रुकने का नाम नहीं लेती।

      बच्चों के इस दल ने कल शरद पूर्णिमा तक घूमकर अच्छे रुपये एकत्र कर लिये थे। पूर्णिमा के बाद टेसू और झेंझी की शादी बालक और बालिकाओं के दल ने मिलकर किसी एक नियत स्थान पर कराई। इसमें भी पूरे मजे लेने के लिये इन्ही में से एक बालक पंडित भी बन जाता है जो उल्टे-सुल्टे मंत्र बोलकर सभी को हंसाता भी हैं ऊं अगड़ं-बगड़ं  स्वाहा, या ऐसे ही अन्य रोचक मंत्र यह पढ़ता है। इसे सब पोंगा पंडित कहकर चिढ़ाते हैं और यह शादी भी कराता है। दोनो दल के पास कतिना रुपया एकत्र होता है उस आधार पर शादी होती है। झेंझी और टेसू की शादी में बच्चे खर्च भी करते हैं। यह ढेर सारी मिठाईयाँ खरीदकर लाते हैं और सभी मिलकर खाते हैं। इसके बाद टेसू और झेंझी फोड़ दिये जाते हैं। इस शादी में इनके बालक बालिकाओं के माता-पिता भी उपस्थित हो जाते हैं, मोहल्ले के लोग भी आ जाते हैं और टेसू और झेंझी की शादी का मजा लेते हैं।

      बालिकाओं की भी अपनी एक अदा होती है, जब उनसे कभी कोई झेंझी दिखाने को कहता है तो वह कहती हैं कि यह बहुत शर्मिली है इसको देखने के लिये कम से कम 11 या 21 रुपये लगेंगे। छोटी-छोटी कन्याओं के मुख से यह बात सुनकर कई लोग रुपये देकर झेंझी देखते हैं वह सहज सरल ढंग से बात करती हैं और झेंझी के गीत भी सुनाती हैं 'अंगना में बोली कोयल, पिछवाड़े बोली मोर, चली है प्यारी झेंझी, हम सबसे मुखड़ा मोड़, पापा भी रोए मम्मी भी रोए, अंगना में खड़ा टेसू, आशा की लगी डोर, चली है प्यारी झेंझी हम सबसे मुखड़ा मोड़'। बालिकाओं ने झेंझी से संबंधित मधुर लोकगीत गड़बड़िया भी सुनाये जिनमें 'गड़बड़-गड़बड़ गाड़ी लो, शेर भाग्यो जाये, की बाई को गड़बड़ियो, शेर में लग्यो कोटा नाई के घरा जाये, की बाई की गड़बड़ियो, बाई ने दी नेरनी, सुताईया के घर जाये' इसी प्रकार बालकों ने 'भूरी बिल्लैया भूरे कान, भूरी के आ गये दो मेजबान, भूरी गई नल्ले में, पूछ पकड़ लई पिल्ले ने' के अलावा 'छोटी से गुड्डी पान खाना सीख गई, बटुए में पैसा नहीं हाथ मारना सीख गई'। और बच्चों के 'टेसू-टेसू यहीं खड़ा, खाने को मांगे दहीबड़ा, दहीबड़ा से पूछी बात, कितने लोग हमारे साथ, हाथी घोड़ा शेर सवार, छुन्नो की रोटी कोई न खाये, खाये खाये चुगरिया खाये, तुम्हारा दिया पुन हो जाये'

        ऐसे गीत गाते इन बालकों की हंसी रुक नहीं पाती। इसी प्रकार 'जैसे रेल चली भई रेल चली, सो डिब्बा छोड़ चली, एक डिब्बा आरम्पार, उसमें बैठे मियां साब, मियां साब की काली टोपी, काले हैं कल्याण जी भूरे हैं भगवान जी, सीता जी की गोद में, कूद पड़े हनुमान जी' गीत भी इन्होने सुनाया। नई उम्र नई पीढ़ी के इन बच्चों को अपनी संस्कृति के इतने पुराने लोक गीत अच्छे से याद है और वह परम्परा को जीवित रखे हुए हैं यही बड़ी बात है।