आष्टा 15 अक्टूबर (नि.प्र.) अरिहंत सिद्धों ने पुरुषार्थ करके आठ कर्म पाकर कर लिए है। उनके कर्म ऐसे है जैसे जली हुई रस्सी, जिसे बच्चा भी समाप्त कर सकता है। जिन शासन को पाकर आत्मा को आत्मकल्याण के पथ पर बढ़कर अपने जीवन को सार्थक करना है। इसी पथ पर बढ़कर कई आत्मा ने अपने जीवन को सार्थक बनाया है। जिस प्रकार प्यास लगने पर प्यासा पानी के पास जाता है, उसी प्रकार हमें अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए संतो-महापुरुषों के पास जाना पड़ता है।
उक्त उद्गार साध्वी श्री मधुबाला जी ने महावीर भवन स्थानक में रविवार को व्यक्त करते हुए कहा कि संतो-महापुरुषों की जिनवाणी व उनकी साधना से हमें पुरुषार्थ करने व अपने जीवन को सार्थक करने का रास्ता मिलता है तथा प्रभु मार्ग को स्वीकार करते है। शिष्य महापुरुषों से यही सीखता है कि हमें कपट न करके साधना-आराधना करके धर्म के पथ पर संघ के साथ चलना है और हमें शीघ्र आत्मकल्याण के लिए इस मार्ग पर चलना है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में गुरु का होना आवश्यक है। बिना गुरु के यह जीवन आगे नहीं बढ़ पाएगा और न ही विकास कर पाएगा। आपने कहा कि अब आचार्य उपाध्याय और साधु पुरुषार्थ करके अरिहंत पद की साधना करते है, अंतिम पद के तैंतीस अर्थात छ: गुण अब आठ और छ: गुण अर्थात चौदह गुणों का सार नवकार मंत्र है। इस नवकार मंत्र का स्मरण यदि एक बार भी सच्ची आराधना तथा मन से करें तो भी भव सागर को तारा जा सकता है। ज्योति से ज्योति विराजमान नवकार मंत्र श्वेत रंग से है। आत्म निर्मल है, सफेद है, जिसमें अंदर व बाहर एक समान दिखाई देता है। ज्ञान को ज्ञानियों ने आंख की उपमा दी है। यदि प्रकाश होगा, सूर्य उदय होगा तभी दिखाई देगा। इस प्रकार आत्मा को आत्मज्ञान की आराधना करके अपनी आत्मा को आगे पहुंचा सकता हैद्ध यह सम्यकज्ञान सुदर्शन रूपी आत्मा के पास होता है, तो वह आत्मा से मैलापन दूर करके स्वच्छ बनाने का प्रयास करता है। इसी लिए सिक्के के दो रूप होते है सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन। इसलिए आंख को खोलने का काम ज्ञान तथा उसे समझने का दर्शन करता है। ज्ञान और दर्शन से हमारी श्रद्धा मजबूत होती है और जब नवकार मंत्र की श्रद्धा होती है, तो वह उसी का आराधक बन जाता है और श्रद्धा नहीं रहती है तो
संसार में भटकता रहता है।
ईष्या की आग के कारण मानव प्रवृत्ति से क्रूर बन जाता है: साध्वी सुनीता जी
इस जगत में व्यवहार की जड, चैतन्य सभी को जलाकर नष्ट कर देती है। मानव मन मेंर् ईष्या की आग और काम की आग में मानव के समस्त सदगुणों को जलाकर नष्ट कर देती है।र् ईष्या की आगे के कारण मानव प्रवृत्ति से क्रूर बन जाता है।
उक्त उदगार साध्वी सुनीता जी महाराज साहब ने व्यक्त करते हुए कहा कि वसुपाल राजा का एक विस्तार पूर्वक कथन सुनाया। आपने आगे कहा कि इस संसार में दुर्गुणी व्यक्ति सर्प के समान होता है। सदगुणी व्यक्ति चंदन की महक के समान धर्म के पथ पर चलकर महकता है तथा दुर्गुणी व्यक्ति सर्प के समान बनकर कुछ भी नहीं कर पाता है।
इस अवसर पर बच्चों के ज्ञान शिविर के दौरान कु. आकांक्षा रांका ने गुरुणी साहब आए प्रवचन सुनाए, आष्टा नगरी में चौमासा रचाए। उक्त भवन को गाया, जिसे उपस्थित सभी श्रावक-श्राविकाओं ने काफी सराहा। शिविर में प्रथम कु. आकांक्षा रांका व द्वितीय शहजल रांका आए।