Wednesday, June 25, 2008

आगे-आगे शहनाई और पीछे-पीछे चलता था आम, साफा बांधकर स्‍वागत करते थे आम बेचने का वाले का,

आज भी सीहोर के आम बेचने दहीयड़-दहीयड़ की आवाज लगाकर आम बेचते हैं, जबकि अब दहीयड ख़त्म हो चुका

(आनन्‍द गांधी)

सीहोर 24 जून । आज जब प्रदेश स्तरीय आम प्रदर्शनी सीहोर जिला मुख्यालय पर मंत्री श्री करण सिंह वर्मा के विशेष प्रयासों से लगी तो सहज ही आम की शौकीन सीहोर वासियों को पुरानी यादें ताजा हो आईं। फुरसत ने भी मौके को प्रांसगिक रुप से उपयोग करते हुए आज सीहोर के एक ऐतिहासिक घटनाक्रम प्रसिध्द दहीयड आम की बिक्री के तरीके को उठाया है। यूँ तो सीहोर में दहीयड़ का वह बोलवाला था कि किसी आम किसी क्षेत्र में न हुआ होगा, लेकिन दहीयड़ के अलावा करेला और बतेशिया, कालिया और बढ़ियाखेड़ी की आमन भी प्रसिध्द थी। सीहोर आमों को लेकर सदैव समृध्द रहा है। आज पढ़िये आमों की वह पुरानी यादें जो अब सिर्फ खासम-खास हो गई हैं।

साठ का दशक जब सीहोर में आम, ईमली और जामुन के पेड़ों की बहुतायत थी। आम और ईमली अनगिनत थे। तब आमों के अनेक बगीचे भी प्रसिध्द थे और इन बगीचों में उगने वालों आमों की किस्म भी प्रसिध्द थी। उसी जमाने में वर्तमान कलेक्ट्रेट के पीछे जो आम के पेड़ उनमें एक दहीयड़ आम का भी पेड था।

जब आम का मौसम आता था तो इस आम को नगर के प्रसिध्द फल विक्रेता जुम्मा खाँ (कूंजडा) लाकर उसकी पाल लगाते थे। नगर भर को मालूम रहता था कि आम दहीयड़ की पाल लग गई है और किस दिन पाल खुलेगी इसकी तारीख भी मालूम कर ली जाती थी। लोग उस तारीख का इंतजार करते थे जब जुम्मा खां की पाल खुले और उन्हे आम देखने, सूंघने और खाने को मिल सके।

जिस दिन पाल खुलती थी उस दिन बकायदा जुम्मा मियां गिनती के आम ठेले पर सजाते थे, फूलों से ठेला सजता था, उसके बाद आम पर बरक लगाई जाती थी, अगरबत्ती लगती थी। आम पूरा सजधज कर जब तैयार हो जाता था। तब शहर के शहनाई वादन करने वालों की बारी होती थी। शहनाई बजाने वाले प्रसिध्द दहीयड़ आम के आगे-आगे शहनाई बजाना शुरु कर देते थे। आम के आसपास भीड़ लगना शुरु हो जाती थी, फिर धीरे-धीरे जुम्मा मियां आम की सवारी ठेला गाड़ी आगे बढ़ाना शुरु करते थे, इधर चारों तरफ भीड़ जमा हो जाती थी, आगे-आगे शहनाई बजती थी और पीछे-पीछे आम चलते थे। इसी दौरान जुम्मा खां की कड़कती आवाज सबको और उत्साहित कर देती थी वह आवाज लगाते थे ''वाह रे दहीयड़ वाह, वाह रे दहीयड़ वाह''।

शहर के प्रसिध्द आम के बगीचों में एक बगीचा कासट जी का भी था और दूसरा मानक सेठ परिवार का भी था। इस संबंध में श्री नारायण कासट दहीयड़ के स्वाद की बात करते हुए आल्हादित होते हुए कहते हैं कि उसका मुकाबला मुश्किल है, दहीयड़ तो दहीयड़ ही था, वह नहीं रहा तब भी आज तक उसके नाम से लोग आम बेचकर कमा रहे हैं। श्री कासट के अनुसार दहीयड़ बहुत अच्छी खुशबूदार आम था लगता था जैसे रस क्या बल्कि किसी ने शहद भर दिया हो, पूरा आम दही की तरह भरा हुआ रहता था, जरा-रेशा नहीं था, लेकिन इस चूसने वाले आम में ईलायची की खुशबू और केशर का स्वाद आता था। यही कारण था कि इसकी प्रसिध्द बहुत अधिक थी।

हाँ तो बात चल रही थी कि आगे-आगे शहनाई और पीछे-पीछे दहीयड़ आम चलता था। फिर यह आम का ठेला सर्राफा बाजार के तिराहे चरखा लाईन पर आकर ठहर जाता था। उस जमाने में वहीं आम बिका करते थे।

यहाँ जब दहीयड़ की सवारी आकर रुकती थी तो जुम्मा खां का यहाँ पर फल बेचने वाले सारे फल विक्रेता स्वागत करते थे। बकायदा उन्हे साफा बांधकर स्वागत किया जाता था और फिर आम बिकना शुरु होते थे।

यहाँ जुम्मा खां का ठेला जब आकर रुकता तो खरीदने वालों की तो भीड़ लग जाती थी लेकिन जुम्मा खां अपने मर्जी से लोगों को आम देते थे। मसलन सिर्फ गिनती के पहचान वालों को आम दिये जाते थे, और वह उनके घर की सदस्य संख्या के हिसाब से, उन्हे या तो एक किलो, या तो दो किलो आम देते थे, इससे यादा आम नहीं दिये जाते थे। इसके बाद आवाज भी जोरदार लगती थी...जैसे 'यह चला 3 किलो वियाणी जी के यहाँ, वाह रे दहीयड़ वाह'। इस प्रकार कुल जमा 3 दिन में पूरी पाल के आम बिक जाते थे।

नगर के इस प्रसिध्द आम और फल विके्र ता ने क ई वर्षों तक इसी ढंग और परम्परा से आम बेचे फिर धीरे-धीरे यह परम्परा खत्म हो गई आज तो सीहोर में दहीयड़ का पेड़ ही नहीं बचा है। लेकिन इसके बावजूद आज भी जब कभी कोई फल विक्रेता उत्साह में आवाज लगाता है यही चिल्लाता आ गया दहीयड़....उसे क्या मालूम की दहीयड़ आम अब सीहोर में ही नहीं...आज की नई पीढ़ी दहीयड़ नाम सुनती तो है लेकिन समझ नहीं पाती कि आखिर दहीयड़ आम होता कौन-सा है।

उस जमाने दहीयड़ के अलावा दशहरा वाला बाग में उगने वाला 'बतेशिया' आम भी खासी चर्चाओ में रहता था, बतेशिया इसलिये नाम था क्योंकि यह बताशे की तरह छोटा और मीठा गट्ट था। इसी प्रकार एक अन्य आम 'कालिया' भी यही उगता था। यह भी मीठा आम था।

हां बढ़ियाखेड़ी में रफ्फू मियां का स्मरण किया जाना लाजमी है, असल में रफ्फू मियां पूर्व पार्षद के खेत में प्रसिध्द 'आमन' उगती थी, जिस पर हर आम की नजर रहती थी। 'आमन' इसे इसलिये कहते थे लगता था जैसे यह कोई आम की मादा नस्ल हो, लम्बी छरहरी पतली लेकिन ऐसी मीठी कि चूसने वाह-वाह कर उठे। इसलिये यह आमन कहलाती थी। रफ्फू मियां के खेत में ही 'रामकिला' किस्म की प्रसिध्द केरी भी उगती थी जो अचार के लिये नाम से बिकती थी। जब आम की बात चल ही रही है तो फिर 'सौंफिया आम' को कैसे भूला जा सकता है। कासट बगीचे में उगने वाले सौंफिया आम की मिठास तो थी लेकिन इसमें सौंफ जैसी खूशबू आती थी और यही उगता था 'सावनी' आम, नाम से पता चलता है कि यह आम श्रावण मास में फलता था, जब बरसात हो चुकती थी तब सावनी आता था तो इसका अचार डालने पर फिर पूरे साल नहीं बिगड़ता था।

वर्तमान में इछावर वाले सेठ रामकिशन धनराज फर्म पर संजय पालीवाल के खेत पर अवश्य करीब 30-32 प्रजाति के पेड़ मोजूद हैं, जहाँ करेला नाम का प्रसिध्द आम भी है जो सिर्फ यहीं है। यूँ तो रोहिला जी के खेत का आम चहुँ और प्रसिध्द है।

कुल मिलाकर सीहोर आमों से समृध्द रहा है और यहाँ की परम्पराएं उससे भी बढ़कर रही हैं। ऐसे में आज जब आम की बहार बाल विहार मैदान में लगी है तो पुराने दिन सहज याद आ जाते हैं।