खबर ही तो है। . . .
सीहोर 24 जून (नि.सं.)। कई बार कुछ ही दिनों में पराये लोग भी अपने लगने लगते हैं....उनसे इतने आत्मीय संबंध बन जाया करते हैं....कि फिर उनकी दूरी बर्दाश्त नहीं होती....हालांकि आना-जाना तो लगा ही रहता है....अब शासकिय अधिकारियों के स्थानान्तरण होते ही हैं... उन्हे भी यह शहर छोड़कर जाना अच्छा नहीं लगता....लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हे ऐसे शासकिय अधिकारियों का जाना अच्छा नहीं लगता । अब हाल ही में शहर से 'वो' क्या गये उनके सारे नहले-दहलों की हालत दयनीय-सी हो गई है...बेचारे अब किसका मकान तुड़वायेंगे....और किसको ठिकाने लगवायेंगे.....समझ नहीं आ रहा....कैसे होगी हर दिन प्रसिध्द दाल-बाफला की पार्टी....कैसे जायेंगे वो उनके साथ घूमने....और हाँ वो जो अक्सर खेल-खेल में हार जाया करते थे उन लोगों को भी बहुत बुरा लग रहा है....सब दुखी हैं...बहुत दुखी...मानों जैसे कोई अपना अब इस दुनिया में न रहा हो....। कुछ ने तो कड़ला मन कर लिया है और आंसू थामकर अब नये शिकार की तरफ ध्यान देना शुरु कर दिया है....ताकि मन भी बहला रहे....और काम भी चलते रहे....। आखिर 'काम' तो चलाना ही है....कै से भी चले....किसी से भी चले....इससे नहीं तो उससे चले....। लेकिन एक महाशय तो जैसे किसी प्रेमिका का प्रेमी से वियोग हो गया हो वैसी हालत में पहुँच गये हैं....बेचारे हाय रे....हाय रे....करते-करते यही कहते हैं वो चले गये.....इन्होने एक बार नहीं कई बार उनसे बातचीत भी कर ली कि 'आपके बिना मैं कैसे रहूं, आप वापस आ जाओ' और तो और बात करते-करते यह एक बारगी फफक-फफक कर रो भी पड़े.....लोग इन्हे सांत्वना दे रहे हैं कि भैया ऐसा तो होता रहता है अब तुम नये वाले की तलाश करो.....उस तरफ ध्यान दो ।