सीहोर 14 नवम्बर (आनन्द)। चुनाव आयोग का डंडा घूमते-घूमते आज इस गति पर आ गया कि उसने प्रत्याशियों की गति ही बिगाड़ दी, खर्च को रोक दिया...और रुपये की बर्वादी को बचा लिया। लाख-पचास हजार रुपये का चुनाव आज एक करोड़ रुपये के आसपास पहुँच चुका है। इतना व्यापक खर्च होता है, तो फिर प्रत्याशी स्वयं ही पद प्राप्त करने के बाद कहीं से भी उस क्षति पूर्ति के लिये प्रयास करने लगता है। आज जिस प्रत्याशी को चुनाव लड़ने में 1 करोड़ रुपये का खर्च हो जायेगा क्या वह विधायक बनने के बाद उस रुपये को कहीं से भी निकालने का प्रयास नहीं करेगा? और क्या सिर्फ इतनी राशि खर्च करने के बाद वह मेहनत करके अपनी खर्च राशि ही निकालेगा या फिर क माई भी करना शुरु कर देगा, जो करोड़ खर्च करके चुनाव जीतेगा वह करोड़ो रुपये कमायेगा भी ....जिससे जनता का रुपया बर्वाद हो जायेगा।
अब चुनाव आयोग ने एक विधानसभा के चुनाव प्रचार के लिये मात्र 10 लाख रुपये के खर्च का प्रावधान रख दिया है। इससे यादा राशि खर्च करने की आवश्यकता नहीं है....यदि होती है तो वह चुनाव आचार संहिता के नियमों का उल्लंघन होगी....हालांकि टी.एन.शेषन के जमाने में जब चुनाव आयोग ने अपना दमखम दिखाना प्रारंभ किया था तब कभी ऐसा नहीं लगा था कि यह आयोग इतना ताकतवर हो सकता है....जब पिछले चुनाव में इसी आयोग ने खर्च पर रोक लगाने के नियम बनाये थे तब भी यह हल निकाल लिया गया था कि खर्च यादा कर बिल बहुत कम राशि का बनवाकर झूठे बिल प्रस्तुत कर दिये जायेंगे और जैसा चल रहा था चलता रहेगा, भारत में इस तरह की जुगाड़ निकाल लेना आम बात है, हर नियम को तोड़ कर लेना भारतीय नागरिक अपनी विशेषता भी मानता है इसलिये ही लग रहा था कि चुनाव आयोग जितने नियम निकालेगा उतने ही उसके तोड़ भी प्रत्याशियों द्वारा निकाल लिये जायेंगे....।
लेकिन आश्चर्य कि टीएन शेषन द्वारा डाली गई नींव की मजबूती दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है....शासकिय तंत्र की ढील-पोल से जहाँ पूरा भारतवर्ष परेशान है वहीं आज चुनाव आयोग की कार्यपध्दति दिन प्रतिदिन निखर रही है। पिछले चुनाव तक जो प्रत्याशी तरह-तरह के झूठ बोलकर लाखों रुपये खर्च कर रहे थे इस बार उन पर चुनाव आयोग ने ऐसी नकेल डाल दी कि वह भी कसमसा कर रह गये...। प्रचार सामग्री बेचने वाले व छापने वालों से ही चुनाव आयोग ने सीधे सम्पर्क बना लिया और उनसे छानबीन करना शुरु कर दी कि आप कितने मूल्य में प्रचार सामग्री छाप कर दे रहे हैं। अब प्रत्याशियों को झूठ बोलने में दिक्कत आ रही है। जिन आटो चालकों के मूल्य बहुत कम आंके जा रहे थे, उसके मूल्य खुद चुनाव आयोग ने तय कर दिये....परिणाम यह निकला कि अब आटो से प्रचार करने पर भी खर्च बढ़ने लगा है....। वाहन रैली निकालनी हो या ट्रेक्टर-ट्रालियों को लाना हो चुनाव आयोग के कैमरे खुद व खुद यहाँ लग जाते हैं....हर एक पर निगाह कैमरा रखता है और फिर पूछताछ के बाद चुनाव आयोग ही यह तय कर देता है कि इसमें असल खर्च क्या हुआ है....। इस प्रकार हर तरफ आयोग की निगाहों का कमाल है कि आज खर्च में बहुत कमी आई है।
अपने प्रत्याशी के लिये पम्पलेट, बेनर, होर्डिंग छपवाने वालो का भी खर्च उसी 10 लाख की कुल सीमा में चुनाव आयोग जोड़ रहा है और इसलिये सतत निगाह रखी जा रही है। हर बोर्ड का खर्च चुनाव आयोग की निगाह में है, और उसके पास उसकी जानकारी भी है।
आयोग की इस सक्रियता का सुखद परिणाम भी देखने को मिलने लगा है। बड़े-बड़े डीजे लेकर घूमने वाले प्रत्याशी, रथ बनवाकर प्रचार करने वाले प्रत्याशी आज आटो में कम से कम स्पीकरों के साथ प्रचार कर रहे हैं, एक स्पीकर की स्वीकृति होने पर वह दो स्पीकर भी नहीं लगा पाते हैं और यही कारण है कि चुनाव के दौरान दिन-दिनभर तेज आवाज में प्रत्याशियों के होने वाले प्रचार से आमजन को मुक्ति मिल गई है।