Friday, August 22, 2008

सम्प्रदायों के कुंओं से निकाल धर्म को विराट सागर का रूप देना चाहिये

आष्टा 21 अगस्त (नि.प्र.)भारत की पावन भूमि पर प्रेम के मंदिर, प्यारे के गिरजाघर, और मोहब्बत की मस्जिद हो। धर्म को तालाब डबरा बनाने की बजाए उसे सरिता के प्रवाह का रूप देना चाहिए। कूप मंडूक बनाने की बजाए उसे संप्रदायों के कुंओं से निकालकर धर्म को विराट सागर का रूप देना चाहिए।
उक्त उद्गार श्री दिगम्बर जैन मुनि जो की चातुर्मास हेतु अमलाह में विराजित है वहां धर्मसभा में प्रवचन के दौरान कहे। महाराज जी ने कहा कि धर्म केवल तर्कबाजी करने के लिए नहीं है बल्कि कषाय मुक्ति और जीवन शुद्धि के लिए इसका उपयोग किया जा सके ऐसा पुण्यमय पथधर्म है। मुनि श्री ने कहा कि इस भारत की मातृभूमि पर एक दो नहीं अपितु अनेक धर्म है और उन धर्मो की व्यवस्थाएं व मान्यताएं मानवीय हितों से जुड़ी हुई है। समय-समय पर भले ही धर्मो में रूप बदलते रहे लेकिन इसके बावजूद धर्म जीवन को सुख और शांति प्रदान करने में मददगार रहता है। मुनि श्री ने उदाहरण दिया की रंग-खुशबू और आकार में अंतर होने के बाद भी हम गुलाब चम्पा चमेली व प्रत्येक फूलों को फूल ही कहते है धर्म का अर्थ हरप्राणी से प्रेम हो उसका ऐसा आचरण हो जिससे अपना और दूसरों का भला हो। प्रत्येक धर्म में लिखा है कि गलती होने पर क्षमा मांगे और दूसरों की गलतियों को माफ करें। करुणा, सत्य, संयम, सेवा और सदाचार से जुड़े रहना चाहिये। उन्होंने उदाहरण दिया की गाय, सफेद काली, लाल, भूरी आदि रंग की होने के बाद भी वो दूध सफेद ही देती है। इसी प्रकार व्यक्ति को धर्म के प्रति भाव रखना चाहिये प्रत्येक धर्म में मानवता ही बताई है धर्म भले ही अलग हो लेकिन सभी धर्मो का एक ही सार है सभी धर्मो के नाम अलग है लेकिन इनमें पाने वाली मंजिल एक ही है।