सीहोर 27 जून (नि.प्र.)। संसार की सबसे बडी लाटरी हम मनुष्यों को मिली है, 84 लाख योनियाँ हैं उनमें से हमें मनुष्य होने की लाटरी खुली है। इसी प्रकार अरबों गृह नक्षत्र हैं जिनकी गिनती संभव नहीं है लेकिन मनुष्य रुपी चेतना का समूह सिर्फ इसी पृथ्वी पर है यह हमारा सौभाग्य है। यह सब पर्यावरण की देन है। इसी पृथ्वी पर ऐसा पयार्वरण है कि यहाँ जीवन संभव है। भारतीय वैदिक साहित्य को यदि पर्यावरण का साहित्य कहा जाये तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
उपरोक्त व्याख्यान अंश जबलपुर से पधारे संस्कृति के विद्वान रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर संस्कृति विभाग आचार्य प्रो. कमल नयन शुक्ल के हैं। श्री शुक्ल यहाँ कालिदास संस्कृत अकादमी उजैन म.प्र. संस्कृति परिषद द्वारा आयोजित लोकप्रिय व्याख्यानमाला 'सारस्वतम्' में अपना व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यानमाला स्थानीय सरस्वती शिशु मंदिर सीहोर में रखी गई थी। श्री शुक्ल ने राष्ट्रकवि कालिदास की पर्यावरण चेतना विषय पर आगे कहा कि हरी हरी धरती को ही सरल शब्दो में हम पर्यावरण कह सकते हैं। हमारे ऋषि मुनि जो जंगलों में रहते थे वह इतने गये गुजरे नहीं थे कि जो जंगल में रहकर पर्यावरण की बात नहीं करते। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण में उपस्थित हर वस्तु को देवता के स्थान पर रखा गया है। आज भी एक कृतज्ञ भारतीय व्यक्ति जब नींद से उठता है तो देवता को प्रणाम करता है और धरती माता के चरण स्पर्श करता है। ईश्वर को धन्यवाद देता है। पाप-पुण्य की अवधारणा भी पर्यावरण से जोड़ी गई है। हमारे यहाँ कहा गया है कि पेड़ लगाओगे तो पुण्य मिलेगा और काटोगे तो पाप।
जब देवगण पेड़ में छुपे
पेड़ देवमय हो गये
श्री शुक्ल ने कालिदास का उल्लेख करते हुए कहा कि अभिज्ञान शकुंतलम की मंगलाचरण से ही शुरुआत हुई है और मंगलाचरण में अष्टमूर्ति के रुप में प्रकृति के तत्वों का वर्णन है, उसमें हिमालय को देवतात्मा कहा गया है। एक कहानी मिलती है कि जब दानव हावी हो गये तो समस्त देवगण छुपने के लिये पेड़ों में चले गये। उस समय सूर्य देवता नीम में, पीपल में विष्णु और ऐसे ही अलग-अलग देवता अलग-अलग वृक्षों में छुपे और लम्बे समय तक वृक्षों में रहने के कारण पेड़ भी देवतामय हो गये। हमारे यहाँ तो कहा जाता है कि देवी को प्रसन्न करने के लिये नीम की पूजा करो या ब्रह्मा जी का वास वटवृक्ष में माना जाता है।
श्री शुक्ल ने किसी प्रकार भारतीय संस्कृति प्रकृति से जुड़ी हुई है इसके उदाहरण देते हुए कहा कि हमारे सामने हाथी आते ही गणेश जी, मोर को देखते ही कार्तिकेय, बंदर में हनुमान जी, उल्लू में लक्ष्मी जी, हंस को देखते माँ सरस्वती, घोड़ा दिखते ही सूर्य का वाहन के रुप में स्मरण हो आता है। हमने तो गिध्द से भी गिध्द दृष्टि और कुत्ते से भी वफादारी सीखी हैं।
कबूतर का रोचक प्रसंग
लेकिन आज न सिर्फ प्राकृतिक प्रदूषण एक समस्या है बल्कि इससे बढ़कर मानसिक प्रदूषण बढ़ गया है। आज लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं और दिखाते कुछ और । एक रोचक प्रसंग सुनाते हुए श्री शुक्ल ने बताया कि एक वकील अपनी पत्नि के साथ टहल रहा था तो सामने ही एक कबूतर गुटर-गूं गुटर गूं करता मिला, वकील ने विद्वता झाड़ते हुए कह दिया कि यह देखो कबूतर है। पत्नि ने तपाक से कहा कि यह कबूतरी है। पति फिर बोला नहीं यह कबूतर है लेकिन पत्नि नहीं मानी, दोनो में विवाद हो गया तभी सामने से एक पंडित जी आते नजर आये, पति ने अपनी समस्या इन्हे सुनाई कहा कि सुबह-सुबह जबरन विवाद हो गया है आप हल कर दें। पंडित ने कहा यह कौन-सी बड़ी समस्या है, उसने झोले में रखे कुछ अनाज के दाने निकाले और कहा जाओ उसके सामने पटक दो, यदि वो चुगता है तो समझो कबूतर है, यदि वो चुगती है तो समझना की कबूतरी है, यह कहकर पंडित जी चले गये। श्री शुक्ल ने कहा कि यही स्थिति आज प्रसंगवश सरकार की भी है जो किसी समस्या को ठोस हल निकालने को तैयार नहीं है।
जब अकबर पर पिताजी नाराज हो गये
श्री शुक्ल ने कहा कि माँ के दूध के बाद चूंकि गौमाता का दूध ही सबसे पहले आहार के रुप में हमे दिया जाता है और फिर जीवन पर्यंत धरती पर उगा अन्न हम गृहण करते है इसलिये गौ को भी माता और धरती को भी माता कहा गया है। उन्होने एक और किस्सा सुनाते हुए कहा कि एक बारगी अकबर-बीरबल जंगल में घूमने गये तो अकबर ने रास्ते में दिखे तुलसी के पौधे को लेकर चिढाने के लिये बीरबल से कहा कि यह तुम्हारी तुलसी माता हैं, और यह कहकर उसने तुलसी को पूरा हाथ से कुचल दिया और दोनो हाथों पर पत्तियाँ रगड़ ली। बीरबल कुछ नहीं बोले, अकबर मुस्कुराते रहे, आगे बढ़ने पर जब एक किरमिच का पौधा मिला तो बीरबल ने कहा कि यह हमारे पिता जी है, अकबर ने उसे भी तोड़कर शरीर पर रगड़कर बीरबल का मजाक उड़ाया, लेकिन कुछ ही देर में अकबर के शरीर पर खुजली मचने लगी। तब पूछा कि यह क्या हुआ तो बीरबल ने जबाव दिया हो सकता है माता जी नाराज नहीं हुई हों लेकिन पिताजी नाराज हो गये हैं। श्री शुक्ल ने अपनी बात रखते हुए कहा कि हमारे यहाँ वेदों में 10 कुएं के बराबर एक तालाब, 10 तालाब के बराबर 1 झील, 10 झील के बराबर 1 पुत्र, और 10 पुत्रों के बराबर 1 फलदार वृक्ष को लगाने का पुण्य माना गया है। वेदों में कहा है कि जो व्यक्ति पुत्रहीन हो वो पेड़ लगाये। जिसने 5 आम के पेड़ लगा दिये उसे कभी नरक नहीं जाना पड़ता। अपनी अध्यक्षीय उद्बोधन में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के प्रो. राजेन्द्र त्रिवेदी ने कहा कि शास्त्र ने हमेशा अंकुश का काम किया है, प्रकृति मनुष्य की आदम सहचरी है। इसलिये पर्यावरण की चेतना मनुष्य में जाग्रत होना आवश्यक है।