भारत मे बाहरी सत्ता के विरुद्ध मई 635 में जो सशस्त्र बगावत हुई थी उसने उत्तर भारत को भी चपेट ले लिया था। बगावत की चिंगारी मालवा व ग्वालियर में पहुँची थी। मालवा क्षेत्र में संगठित बगावत शुरु होने के लगभग 6 माह पूर्व से ही सीहोर भोपाल रियासत में बगावत की तैयारी होने लगी थी। 13 जून 1857 के आसपास सीहोर के कुछ देहाती क्षेत्रों में भी बगावती चपातियाँ पहुँची थीं। इस क्षेत्र में ये चपातियाँ एक गांव से दूसरे गांव भेजी जाती थी, जो इस बात की परिचायक समझी जाती थीं कि इन देहातों के रहने वाले बग़ावत से सहमत हैं। सीहोर के देहाती क्षेत्रों में इन चपातियों के पहुँचने से ये नतीजा निकलता है कि यहाँ रहने वाले बहुत पहले से अंग्रेजी राज को समाप्त करने की तैयारी में जुटे थे। हालाँकि इन चपातियों के आने और जाने को बग़ावत के कार्यों में शामिल नहीं किया जाता था फिर भी चपातियाँ बगावत की तैयारी का प्रतीक समझी जा सकती हैं। (स्त्रोत हयाते सिकन्दरी नवाब सुल्तान जहाँ बेगम)
सीहोर में बंटे बगावती पर्चे
1 मई 1857 को भोपाल में एक बाग़ियाना पोस्टर की पाँच सौ कापियाँ भोपाल सैना में वितरित की गईं थीं। इस पोस्टर में अन्य बातों के साथ लिखा था कि बरतानवी हुकूमत हिन्दुस्तानियों के धार्मिक मामलों में भी मदाखलत कर रही है इसलिये इस सरकार को खत्म कर देना चाहिये। इसे पढक़र फौजियों में बांगियाना जज्बात पैदा हो गये और कुछ सिपाहियों ने तय कर लिया था कि देहली जाकर गदर आंदोलन में साथ देंगे। भोपाल सैना का एक व्यक्ति 'मामा कहार खाँ' रियासत भोपाल के पहले आदमी थे जिन्होने अपना वेतन और नौकरी दोनो को छोड़कर देहली जाने का फैसला कर लिया। उनकी देखा-देखी सिपाहियों ने वेतन लेने से इंकार कर दिया। इस पर सिकन्दर बेगम भोपाल ने मामा कहार खाँ को मनाने के प्रयास किये लेकिन वह राजी नहीं हुए। इस पर उस पोस्टर का एक जबावी पोस्टर 4 जून 1857 को सिकन्दर प्रेस में छपवाया जाकर सिपाहियों में वितरित किया गया। बगावती पोस्टर बाहर से छपकर आये थे जिन्हे यहाँ शिवलाल सूबेदार ने बंटवाये थे। जिससे सिद्ध होता है कि भोपाल से देश के अन्य क्रांतियों की नजदीकी थी।
देशभक्त मोहम्मद खाँ ने जब इन्दौर से अंग्रेजों को भगाया
जून 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन गदर से पूरा मालवा आंदोलित था। ग्वालियर, माहिदपुर, महू, मंदसौर, इन्दौर में क्रांति की ज्वाला भड़क गई थी। उस समय महाराज ग्वालियर जीवाजीराव ने अंग्रेजों को शरण दी। इन बगावतों के समय सीहोर की सैनिक छावनी से 300 जवान इन्दौर रेजीडेंसी की सुरक्षा के लिये तैनात किये गये। इन्दौर की बंगावत प्रारंभ होने के पहले भोपाल के एक बागी वारिस मोहम्मद खाँ इन्दौर में मौजूद थे। इन्ही मोहम्मद खाँ और सआदत मोहम्मद खाँ के नेतृत्व में 1 जुलाई 1857 की सुबह इन्दौर की छावनी में रेजीडेंसी की इमारतों पर हमला किया था। इन इमारतों की सुरक्षा के लिये सीहोर की सैनिक कम्पनी तैनात थी। लेकिन बागियों के आगे सबने हथियार डाल दिये।
हमले में लगभग 50 अंग्रेज मारे गये। उस समय कार्यवाहक गवर्नर जनरल कर्नल डयूरेंट वहीं था जो भाग कर अन्य जगह चला गया और भोपाल सिकन्दर बेगम से मदद मांगी। इस पर बेगम ने उन्हे उनके अंग्रेज साथियों के साथ सीहोर तक सुरक्षित लाने की व्यवस्था कर दी जिसके लिये सीहोर की ही फौज के कुछ वफादार सिपाहियों को भेजा गया। इन सिपाहियों ने 4 जुलाई को सीहोर छावनी जनरल डयूरेंट को पहुँचाया। इसके बाद डयूरेंट तो होशंगाबाद चला गया लेकिन सिकन्दर बेगम की अंग्रेजो को दी गई मदद से सीहोर की सैनिक छावनी में बगावती लहर पैदा हो गई।
10 जुलाई 1857 को सारे अंग्रेज भाग गये
सीहोर की फौज के जो सिपाही इन्दौर व महू में तैनात किये गये थे उनमें से 14 बागी सिपाही बिना अनुमति के 7 जुलाई को सीहोर वापस आ गये और उन्होने यहॉ आते ही सीहोर सैनिक छावनी में बगावत की तैयारी शुरु कर दी। सीहोर सैनिक छावनी के तेवर बिगड़ने से पॉलिटिकिल एजेन्ट मेजर हेनरी विलियम रिकार्डरस घबरा गये। इसलिये उन्होने और उनके अंग्रेज स्टाफ ने फौरन सीहोर छोड़ देने का फैसला कर लिया। उन्होने सिकन्दर बेगम से बातचीत के बाद होशंगाबाद जाने का निर्णय लिया और 10 जुलाई 1857 को पॉलिटिकिल एजेन्ट और उनके सभी अंग्रेज अपने परिवार (पत्नि-बच्चे) सहित होशंगाबाद चले गये। उस समय जाने के पहले 9 जुलाई को सीहोर फौज का पूर्ण चार्ज भोपाल रियासत को दे दिया था। उस समय सीहोर की फौज में 737 पैदल, 363 सवार, 113 तोपखाने के आदमी थे। रियासत की और से इस फौज का चार्ज भोपाल आर्मी के कमांडर इन चींफ बख्शी मुरव्वत मोहम्मद खाँ ने लिया था। इस प्रकार 10 जुलाई 1857 के बाद डर के मारे सीहोर छावनी में एक भी अंग्रेज बाकी नहीं रहा था।
यहॉ उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों को होशंगाबाद छुड़वाने के लिये सिकन्दर बेगम ने सिपाहियों को भेजा था उन सिपाहियों को ही फौज से निकालने की मांग सीहोर के बागी सिपाहियों ने कर दी थी। जिसे बख्शी ने मानने से इंकार कर दिया था।
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