घटना उस समय की है जब धनुर्धारी भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ दंडक वन में गषि विश्वामित्र के यज्ञ स्थल की रक्षा कर रहे थे। यज्ञ भंग करने के लिए वहां पर ताड़का, सुबाहु व नीच मारीच पहुंच गए। भगवान राम ने अपने बाणों के प्रचंड प्रहारों से ताड़का व सुबाहु का तो वहीं पर संहार कर दिया और मारीच पर इतना प्रबल बाण चलाया कि वह सौ योजन दूर रावण के पास जा गिरा जहां से आतंकवाद की सारी गतिविधियां चल रही थीं। तब भयभीत मारीच आतंकवाद के सरगना रावण से कहता है कि
तेहि पुनि कहा सुनहु दससीसा,
ते नररूप चराचर ईसा।
तासों तात बैर नहीं कीजै,
मारें मरिअ जिएं जीजै॥
मुनि मख राखन गयउ कुमारा,
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।
सत जोजन आयउं छन माहीं,
तिन्ह सन बैर किए भल नाहीं।
अर्थात् हे रावण, वे मनुष्य के रूप में ईश्वर हैं। उनसे वैर न कीजिए। जन्म और मृत्यु उनके अधीन हैं। उनके फल के बिना बाण इतने प्रबल हैं कि मैं क्षण भर में ही यहां सौ योजन की दूरी पर आ गिरा। आपका उनसे वैर करने में भला नहीं होगा। आज जरूरत है देश में छद्म वेश में छिपे ताड़का, सुबाहु व मारीच अर्थात् आतंकवादियों को ऐसा सबक सिखाने की, जो विदेशों में बैठे लादेन, दाऊद, आई.एस.आई. रूपी रावण को समझा सकें कि भारत से वैर लेने का साहस न करें।
देश में आतंकवाद कोई नई समस्या नहीं है। यह प्राचीन समय में भी विद्यमान था। अंतर केवल इतना है कि इसका स्वरूप अलग था। ऋषि-मुनियों के आश्रमों में राक्षसों द्वारा उत्पाद मचाने, उनका संहार करने की जो घटनाएं हैं वे आतंकवाद की ही दास्तानें हैं। दु:ख की बात है कि आतंकवाद को समाप्त करने के लिए हम विश्व से सहयोग मांगते फिर रहे हैं जबकि 'रामचरितमानस' के रूप में इस समस्या का समाधान सदियों से हमारे पास है।
देश के पास न केवल समाधान बल्कि सामर्थ्य भी है कि आतंकवाद को देश से पूरी तरह नेस्तानाबूद कर दिया जाए, परन्तु कमी केवल भगवान राम जैसे कुशल नेतृत्व व महाराजा दशरथ जैसी प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति की है। 'रामचरित मानस' में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो हमें बताते हैं कि आतंकवादियों से किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए। उक्त प्रसंग से प्रेरणा लेकर हमें अपने पड़ोस में चल रहे आतंकवादियों के अड्डों को ध्वस्त कर देना चाहिए और आतंक फैलाने वाले लोगों व उनके समर्थकों का इस निर्ममता से संहार करना चाहिए कि कोई मारीच अपने आका को जाकर समझाने को विवश हो जाए कि भारत में उनके इरादे सफल होने वाले नहीं हैं।
ऋषि विश्वामित्र जब महाराजा दशरथ के पास आतंकवाद के खिलाफ मदद लेने के लिए आए तो उनसे विरोधी विचार रखने वाले गुरु वशिष्ठ जी ने भी उनकी हां में हां मिलाई और राम लक्ष्मण को राक्षसों का संहार करने के लिए भेजने का समर्थन किया। यह बात हमें आतंकवाद के खिलाफ एकमत व एकजुट होने की सीख देती है। समाज में हमारे कितने भी राजनीतिक, वैचारिक, सामाजिक मतभेद हों परंतु आतंकवाद के खिलाफ सभी को एकजुट होना होगा।
भगवान राम का पूरा जीवन धर्म व मर्यादा का प्रतीक है परन्तु आतंकवाद की समाप्ति के लिए वे कहीं-कहीं मर्यादा का त्याग भी करने से नहीं झिझकते। रामायण में शूर्पनखा कुटिल कूटनीति की प्रतीक है परन्तु भ्राता लक्ष्मण उसकी नाक काट कर इस कूटनीति का पटापेक्ष करते हैं। आज शूर्पनखा की तरह ही हमारे देश में बैठे मानवाधिकार संगठन व आतंकवाद की मां पाकिस्तान विदेशों में भारत के खिलाफ दुष्प्रचार कर रहे हैं। पाकिस्तान हमारे देश में विशेषकर कश्मीर में चल रहे आतंकवाद को स्वतंत्रता संग्राम बता रहा है तो मानवाधिकारवादी व प्रगतिशीलवादी आतंकवाद को गुजरात दंगों के साथ जोड़कर इसे तर्कसंगत ठहराने का प्रयास करते हैं। सरकार जब भी आतंकवाद के खिलाफ सख्त कानून बनाती है या इन नरपिशाचों पर सख्ती करती है तो इसके विरोध में हजारों शूर्पनखाएं खड़ीं होकर शोर मचाने लगती हैं। जरूरत है आतंकवाद समर्थित इन शक्तियों का पटाक्षेप करने की और इनकी नाक काटने की।
इसी तरह अधर्म के प्रतीक व आतंकवादी सरगना रावण के मित्र महाबली बाली को मारने के लिए भगवान राम को मजबूरीवश छिपकर वार करना पड़ता है, जो हमें प्रेरणा देता है कि आतंकवाद को समाप्त करने के लिए हमें साम, दाम, दंड, भेद, जैसी नीतियों का भी सहारा लेना पड़ता है। बाली वध के माध्यम से भगवान राम ने रावण को अपनी शक्ति का अहसास करवाया था और संदेश दिया था कि जिस बाली ने उसे अभय प्रदान किया था उसको भी मारा जा चुका है। ऐसा करके उन्होंने रावण (आतंकवादियों) को सही मार्ग पर आने का अंतिम अवसर दिया था। परन्तु रावण नहीं माना जिसके फलस्वरूप एक लाख पूत, सवा लाख नाती, महाबली भाई कुंभकरण, विशाल सेना अकाल मौत का शिकार बनी। वास्तव में आतंकवाद का अंत करने के लिए रामायण से अधिक प्रेरणादायी कोई दूसरा प्रसंग मिलना इस धरती पर शायद ही संभव हो।
भगवान राम जब दंडकारण्य में विचरण करते हैं तो गषि-मुनि उन्हें हड्डियों के ढेर दिखाते हैं। जिस प्रकार आज आतंकवादी आतंक फैलाने के लिए हत्याएं व विस्फोट करते रहते हैं उसी प्रकार राक्षसों ने भी समाज को भयभीत करने के लिए हड्डियों का ढेर लगा दिया था। तब भगवान राम, 'निसिचर हीन करुँ महि, भुज उठाई पन कीन्हं अर्थात् धरती को निशाचर विहीन (आतंकवाद मुक्त) करने की प्रतिज्ञा लेते हैं और इस समस्या से निपटने के लिए दॄढ़ संकल्प व इच्छाशक्ति का संदेश देते हैं। आतंकवाद की हर घटना के बाद दूसरों को जिम्मेवार, ठहराने, ओछी राजनीति करने, आतंकवाद से सख्ती से निपटने की औपचारिक घोषणा करने वाले भारत के राजनेता अपनी इस विरासत से मार्गदर्शन लें।
साभार पांचजन्य