सीहोर 7 फरवरी (फुरसत)। एक वार्ड पार्षद की लगातार मांग को लेकर अंतत: उसे एक सड़क बनाने का ठेका दे ही दिया गया। भूखे को और क्या चाहिऐ दो रोटी। कुछ यही बात इन पार्षद महोदय की भी रही। इधर वर्कआर्डर मिला और उधर काम का उतावला शुरु हो गया। असल में लम्बे समय से यह पार्षद महोदय सिर्फ दूसरे पार्षदों को काम करते हुए देखते रहते थे और मन मसोस कर अध्यक्ष जी के चक्कर लगाया करते थे। लेकिन इन्हे काम नहीं मिलता था। दूसरे पार्षदों के ठेकेदार इनकी निगाह में गले-गले हुए जा रहे थे और यह सूखते जा रहे थे। छोटी मोटी नाली की पुलिया भी इनके मोहल्ले में नहीं बन रही थी। बमुश्किल जब इन पार्षद महोदय को किसी तरह एक सड़क निर्माण का ठेका मिला तो वह रातमरात सड़क बनाकर इतिहास रचना चाहने लगे।
इधर ठेका मिलते ही दूसरे दिन उन्होने सड़क निर्माण शुरु कर दिया और तीसरे दिन तक पूरी सड़क बनकर तैयार भी हो गई अब उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। 50 हजार की सड़क के लाखों रुपये मिलने वाले थे। वह खुशी-खुशी भुगतान के लिये अपने मित्र पार्षदों से रणनीति समझने पहुँचे फिर नगर पालिका आये और संबंधित अधिकारियों से बातचीत की। लेकिन यह बात बिगड़ गई।
हुआ यूँ कि जो सड़क आनन-फानन में बन गई थी उसको बनते हुए नगर पालिका के किसी भी इंजीनियर ने जाकर भी नहीं देखा था तो फिर वह किस आधार पर साईन कर देते। माना की चहुँ और गड़बड़झाला है लेकिन कम से कम अधिकारी अपना काम कुछ तो करे...ऐसे ही नगर पालिका के अधिकारियों ने भी इनसे हाथ झटक लिया और स्पष्ट कहा कि हमारे सामने जब सड़क बनी ही नहीं तो फिर कैसे सड़क के निर्माण संबंधी टीप लिखे और अपनी स्वीकृति दें। आखिर नियम-कायदे-कानून भी कोई चीज है।
अब नियम-कायदे तो सभी को पता होते हैं लेकिन चलता कौन है....? लेकिन जब नगर पालिका की बात हो रही हो तो कहा जाता है कि यहाँ बहुत कुछ संभव है। अब सडक़ बनाऊ पार्षद इस चिंता में हैं कि आखिर उनका भुगतान कब होगा ?