सीहोर 2 जून (नि.सं.)। नगर पालिका की वर्फ और मटकों की कहानी आज कल सबकी जुबानी बनी हुई है। 16 क्विंटल वर्फ और ले देकर कुल जमा 100 मटके आये थे ? अब वो कहाँ गये इसका हिसाब है कि सुनते ही लोगों के पेट में दर्द शुरु हो जाता है। कहा जा रहा है कि एक सार्वजनिक कार्यक्रम के लिये आया वर्फ 16 क्विंटल था लेकिन वो दिखा इसलिये नहीं क्योंकि पूरा पिघल गया और रही बात मटकों की तो साहब जबाव बड़ा बेतुका है मटके आये थे लोगों ने पानी भी पिया और फिर तत्काल वह उसी दिन फूट भी गये। लेकिन इन दोनो ही मटके-वर्फ भुगतान वर्फ अपेक्षा से जल्दी से पिघल जाने और मटको तत्काल फूट जाने के कारण नहीं हो रहा है। और यही कारण है कि नगर पालिका में हाय तौबा मची हुई है.....।
ज्ञात होगा नागरिकों को वह दिन जब हाल ही में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के बुजुर्ग तुनक मिजाज नेता सुन्दरलाल पटवा सीहोर आये थे और उन्होने मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना का शुभारंभ हजारों ग्रामीणों की उपस्थिति में चर्च मैदान पर किया था। किस प्रकार झूठ बोल-बोलकर ग्रामीणों को यहाँ एकत्रित करवाया गया था यह किस्सा तो चर्चा में पहले से ही था और फिर भोजन के नाम पर जो रुखा-सूखा बंटा और बाकी अव्यवस्था थी उसके गुणगान अभी तक थमे ही नहीं है कि अब एक और चर्चाएं पाक सामने आ गया है।
नगर पालिका ने इस दिन उपस्थित ग्रामीणों को ठंडा रखने के लिये 16 क्विंटल वर्फ खरीदने की बात भी कही है ? अब यह बात किसी के समझ नहीं आ रही कि 16 क्विंटल वर्फ आखिर क्यों खरीदी गई थी ? इससे क्या ठंडा रखना था क्योंकि भोजन में तो सिर्फ पूड़ियां थीं और पूडिया गर्मागर्म बांटने के कथित प्रयास किये गये थे तो फिर आखिर ठंडा किसे रखना था ?
नगर पालिका सूत्रों का कहना है कि इस दिन 16 क्विंटल वर्फ व्यवस्थाओं के लिये खरीदे जाने की बात बताई जा रही है। यह 16 क्विंटल वर्फ क्यों आया था ? यह रहस्य का विषय बना हुआ है। लेकिन इतना अवश्य है कि यह पूरा पिघल गया है...और अब पिघले वर्फ का तो कुछ उपयोग हो ही नहीं सकता।
इसी दिन इसी कार्यक्रम के लिये 100 मटके भी खरीदे गये थे ? मटकों 100 खरीदे जायें या 200 इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन खास बात यह है कि यह मटके 25-30 रुपये प्रति नग के नहीं थे बल्कि इनका बिल भी सूत्रों के अनुसार 80-90 रुपये प्रति मटके के हिसाब से बना मतलब 100 मटके करीब 8-9 हजार रुपये के हो गये हैं। अब इतने महंगे मटके सीहोर में कहाँ मिलते हैं यह बता पाना तो मुश्किल है लेकिन नगर पालिका का उक्त ठेकेदार अवश्य इसी इतने ऊंचे दाम पर मटके दे रहा है और पालिका खरीदने के नाटक भी रच रही है।
खास बात यह है कि जिस दिन पटवा जी आये थे उस दिन चर्च मैदान पर यह 100 मटके कहाँ रखे थे ? इनमें से ठंडा पानी कितने लोगों ने पिया यह बात खोज का विषय है ? और जब इतने मटको का बिल बनाया गया है तो यह पूछने की आखिर जो मटके इतने महंगे खरीदे गये हैं वो कहाँ गये तो जबाव है साहब मटके कोई लोहे के थोड़े ही हैं जो रखे रहेंगे अरे सारे के सारे फूट गये और क्या।
मतलब वर्फ पिघल गई और मटके फूट गये और किसी को कानों कान खबर भी नहीं हुई। लेकिन समस्या तो तब आन पड़ी जब इसका बिल नगर पालिका में लगा तो वहाँ पता चला कि इसका भुगतान तो पालिका नहीं करेगी बल्कि नोटसीट बनकर जिला पंचायत में जायेगी। जिला पंचायत में कितना भ्रष्टाचार होता है यह तो राम जाने लेकिन जबसे नगर पालिका उपरोक्त बिल पहुँचा वहाँ हायतौबा मची हुई कि इतने महंगे मटके कहाँ चले गये और वर्फ कैसे पिघल गई।
हालांकि इस बिल में एक और विशेषता यह है कि उस दिन कागज की पुड़िया में पुड़ी बंटी थी लेकिन यहाँ भोजन के नाम पर ढेर सारे दोने, पत्तल और डिस्पोजल का बिल भी बना है। इन मटको और वर्फ के साथ क्या दोने-पत्तल और डिस्पोजल भी खत्म हो गये हैं यह भी जांच का विषय है। अब देखते हैं कि जिला पंचायत कैसे इस बिल का भुगतान करती है? वहाँ बैठे लेखापाल क्या इसकी जांच करते हैं ? क्या आपत्ति लेते हैं या नगर पालिका और जिला पंचायत में सेटिंग हो जाती है।