देश के लिए इस महान संग्राम और उसके शहीदों को याद करना गौरव की बात है। लेकिन इस मौके पर यह सवाल पूछा जाना जरूरी है कि भारत जैसे विशाल देश, जिसके चप्पे-चप्पे पर लोगों ने फि रंगी सरकार के खिलाफ दो साल से भी ज्यादा लगातार विद्रोह किया था, केवल 10 से 15 हजार गोरों से कैसे मात खा गया? अंगरेजों के चाटुकार इतिहासकार, जिनमें कई हिंदुस्तानी भी रहे हैं, जीत का कारण उनकी रणकौशलता, बहादुरी, हिम्मत और उनके पास उपलब्ध उच्च कोटि के जंगी साज-सामान को मानते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के एक प्रसिध्द इतिहासकार आर सी मजुमदार और 1857 के प्रत्यक्षदर्शी सैयद अहमद खान का (जिन्हें सर सैयद के तौर पर ज्यादा जाना जाता है) कहना था कि 1857 का विद्रोह न राष्ट्रीय था, न देश की स्वतंत्रता से इसका कोई संबंध था और न ही इसे लोगों का समर्थन प्राप्त था।
यह इतिहासकार कहते हैं कि अंगरेजों ने 1857 में और उसके बाद 'विद्रोहियों' पर बहुत आसानी से जीत हासिल कर ली, क्योंकि 'विद्रोही' सेना की हिम्मत पस्त थी, वे असंगठित थे और उनमें रण-कौशल नहीं था। यह कितना बड़ा झूठ है, इसका अंदाजा दिल्ली पर हमला बोलने वाली अंगरेजी सेना के एक वरिष्ठ अफ सर हॅडसन की डायरी में लिखे इस वक्तव्य से होता है, 'शहर की सीमा पर जबरदस्त विरोध का सामना करने के बाद हमारी फोजें शहर में दाखिल हुईं, तो जिस हिम्मत और दृढ़ता के साथ विद्रोहियों और हथियारबंद योध्दाओं ने जंग लड़ी, वह सब हमारी सोच से बाहर था।'
सवाल उठता है कि अगर इंकलाबी हर तरह से तैयार थे, उनमें जज्बा था और अपने वतन को कंपनी के शिकंजे से आजाद कराने के लिए वे हर कीमत चुकाने को तैयार थे, तो हिंदुस्तान यह संग्राम क्यों हार गया? इसका जवाब खोजना जरा भी मुश्किल नहीं है। अंगरेज हुक्मरां षडयंत्र रचने में माहिर थे। उन्होंने जो युध्द जीते, वे अपनी बहादुरी और रणकौशलता की वजह से नहीं, बल्कि षडयंत्रों, जासूसों और हिंदुस्तानी दलालों की मदद के बल पर। प्लासी के युध्द में मीर जाफर जैसा गद्दार न होता, तो सिराजुद्दौला का हारना असंभव था। टीपू सुल्तान इसलिए हारे, क्योंकि मीर सादिक, मीर गुलाम अली, कासिम अली और दीवान पूरनिया जैसे गद्दार अंगरेजों के कुकर्मों में हिस्सेदार बन गए थे। इतिहासकार जॉन विलियम ने, जो उस दौर की घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे, 1868 में छपी अपनी पुस्तक सिपॉय वार इन इंडिया में माना, 'सच तो यह है कि हिंदुस्तान में हमारी सत्ता की पुनर्स्थापना का सेहरा हमारे हिंदुस्तानी समर्थकों के सिर है, जिनकी हिम्मत और बहादुरी ने हिंदुस्तान को अपने हमवतनों से छीनकर हमारे हवाले कर दिया। स्वाधीनता के पहले संग्राम के बारे में हमारे इतिहास की पाठयपुस्तकों में जो जानकारी मिलती है, वह अधूरी है। इस संग्राम का सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतना बड़ा देश मुट्ठी भर अंगरेज फौजियों से आखिर कैसे हार गया?
' विलियम रसल लंदन से छपने वाले अखबार द टाइम्स के युध्द संवाददाता के तौर पर युध्द का हाल बताने के लिए भारत भेजे गए थे। रसल ने 9 मई, 1857 को भेजी अपनी एक रपट में लिखा, 'दिल्ली की हमारी घेराबंदी बिल्कुल नामुमकिन होती, अगर पटियाला और जींद के राजा हमारे मित्र नहीं होते और अगर सिखों ने हमारी बटालियनों के लिए भरती नहीं की होती...।' रसल ने अपनी कई रपटों में इस सचाई को भी स्वीकारा कि अगर लखनऊ और दिल्ली के मोरचों पर नेपाल के राजा के गोरखा सैनिक नहीं पहुंचते, तो अंगरेजों की जीत असंभव थी।
यह संग्राम किस वजह से हारा गया, इसका मार्मिक वर्णन इस संग्राम के एक प्रमुख सेनापति नाना साहब के उस अंतिम पत्र में मिलता है, जो उन्होंने 1858 में देशवासियों के नाम लिखा था। 'यह पराजय मेरे अकेले की नहीं, बल्कि पूरे देश की है। इस पराजय का मुंह हमें गोरखों, सिखों और राजाओं की सेनाओं की वजह से देखना पड़ा। मैं जीवन भर देश की आजादी के लिए लड़ा और लड़ता रहूंगा। शैतान रजवाड़ों ने अपने स्वार्थ के लिए इस देश को अंगरेजों के हवाले कर दिया, जबकि अंगरेजों की हमारे सामने कोई हैसियत नहीं थी।' यहां यह याद रखना जरूरी है कि रसल और नाना साहब जब सिखों की बात करते हैं, तो उसका मतलब आम सिख नहीं, बल्कि सिख रजवाड़े हैं। सिख किसानों ने तो इस संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और दिल्ली को अंगरेजों से बचाने में सैकड़ों सिख इंकलाबी सैनिकों ने अपनी जानें कुरबान की थीं।
20 सितंबर, 1857 को अंगरेज दिल्ली शहर पर एक बार फिर कब्जा करने में सफ ल हुए। फि रंगी उन हिंदुस्तानी गद्दारों की वजह से सफ ल हो सके, जो चांदी के चंद टुकड़ों के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। इन गद्दारों की एक लंबी सूची है। इनके द्वारा अंगरेज आकाओं को लिखे पत्रों से इस सचाई का पता लगता है कि जिस समय दिल्ली के मोरचे पर इंकलाबी सैनिक अंगरेज सेनाओं के दांत खट्टे कर रहे थे, उसी दौरान 7 अगस्त, 1857 को इंकलाबियों के एक बहुत बडे बारूद के जखीरे में आग लग गई। उस विस्फोट में 500 से ज्यादा इंकलाबी शहीद हुए और इंकलाबियों को गोला-बारू द के लाले पड़ गए। यह कारनामा दरअसल रजबअली का था, जो न केवल बादशाह की परामर्शदात्री समिति का सदस्य बनने में सफल हुआ था, बल्कि बारूदखाने का दरोगा भी बन बैठा था।
एक और गद्दार मुंशी जीवनलाल, जिसे 'रायबहादुर' की उपाधि भी मिली, कंपनी में मुख्य मुंशी था और बहादुरशाह जफर और उनके परिवार पर चलाए गए मुकदमे में अंगरेजों के पक्ष में मुख्य भूमिका निभाने वाला रहा। कंपनी के एक इतिहासकार केव ब्राउन ने अपनी किताब पंजाब ऐंड देहली इन 1857 में इसकी चर्चा करते हुए लिखा, 'वे दिल्ली के बीचोंबीच रहते हुए शहर में मौजूद विद्रोहियों से संबंधित हर वह सूचना, जिसका जानना हमारे लिए जरूरी था, कागज की परचियों पर लिखकर चपातियों की परतों में, जूतों के तलों में, पगड़ियों की तहों में, सिखों के बालों के जूड़ों में छिपा-छिपाकर हम तक पहुंचाते रहे।'
'अंगरेजों को मध्य भारत में इंकलाबी सेनाओं के हाथों बार-बार पराजय का सामना करना पड़ा था।' मध्य भारत के अंगरेज मुख्य प्रशासक ने अपने संस्मरणों में यह लिखा है। दिल्ली और लखनऊ पर अंगरेजों का कब्जा करवाने में कश्मीर और पटियाला के महाराजाओं की सेनाओं ने जबरदस्त मदद की थी। ये राजपरिवार आजादी के बाद भी सत्ता में रहे। जिन विद्रोही राजपरिवारों का इस संग्राम में हिस्सेदारी की वजह से विनाश हुआ था, उनको न आजादी के समय और न ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शत वार्षिकी पर इंसाफ मिल सका था। कितना अच्छा हो, अगर इस महान संग्राम की 150वीं वर्षगांठ पर मुल्क के लिए मर मिट जाने वाले वीरों की मौजूदा पीढ़ियों को इंसाफ और सम्मान मिल सके।