सीहोर 9 सितम्बर (नि.सं.)। भगवान के दर्शन का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि आप मंदिर में प्रतिमा देख आओ, मंदिर की दीवारें देख लो, कोई चित्र टंगा है उसे देख लो, चक्कर काट लो और समझो की हो गया अपना तो दर्शन, तो इसे दर्शन करना नहीं कहते। भगवान का दर्शन करना है तो पहले समर्पण करो और समर्पण करना है तो कम से कम जब दर्शन करने जाओ तो भगवान को साष्टांग प्रणाम तो करो, स्वयं को उन पर समर्पित कर दो तब जाकर आपका दर्शन पूर्ण होता है। बड़े बनने में लाभ नहीं है, छोटे बनने में सदा लाभ है, हम सब भगवान के बच्चे हैं, इसलिये इसी भाव में भगवान को परम पिता परमेश्वर के रुप में पूजा करना चाहिये।
उक्त उद्गार आज श्रीमद्भागवत ज्ञान गंगा यज्ञ के प्रथम दिन सीहोर नगर के प्रसिध्द कथावाचक पं. प्रदीप मिश्रा ने यहाँ बड़ा बाजार में श्रीमुन्नालाल भारुका अग्रवाल पंचायती भवन में दिये। अग्रवाल महिला मण्डल द्वारा लगातार कथा का यह 9 वाँ वर्ष है। हर वर्ष की तरह ही भाद्रपद की नवमी को आज कथा प्रारंभ हुई। पं.श्री मिश्रा ने कहा कि जिस तरह छोटा-सा बच्चा दिनभर अपनी माँ से चिपका रहता है, उसके साथ ही घूमता है, दिनभर माँ का नाम लेता है ठीक वैसे ही आप भी छोटे बन जाओ और दिनभर भगवान से जुडे रहो। उन्होने कहा कि घर में आई छोटी बहु को बड़ा लाभ रहता है जबकि बड़ी बहु तो हमेशा ताने मिलते हैं, इसलिये बड़े बनने में नहीं छोटे बनने में ही लाभ है।
मंदोदरी रावण की
पत्नि नहीं धर्मपत्नि थी
उपस्थित महिला श्रोताओं को पत्नि धर्म के संबंध में व्याख्या पूर्वक बड़े ही रोचक प्रसंग के साथ समझाते हुए श्री मिश्रा ने कहा कि आप किसी भी रामायण में उठा कर देख लो मंदोदरी रावण की पत्नि है ऐसा कहीं उल्लेख नहीं मिलेगा यदि मिलेगा तो हर मंदोदरी को रावण की धर्मपत्नि के रुप में उल्लेख किया गया है। मंदोदरी रावण की पत्नि नहीं बल्कि धर्मपत्नि थी। उन्होने कहा कि पत्नि वो जो पति तो सिनेमा, होटल, बाजार मतलब पति को पतन की और ले जाये और धर्मपत्नि पति को मंदिर, संकीर्तन, संत दर्शन, भागवत कथा श्रवण ले जाये ताकि पति धर्म की और बढ़े इसे ही धर्मपत्नि कहा गया है। उन्होने बताया कि मंदोदरी ने हमेशा रावण को धर्म का मार्ग बताया न सिर्फ बताया बल्कि उसे धर्म मार्ग की और प्रशस्त भी किया।
जब रावण ने माता सीता के हाथ से बना भोजन किया
पं. श्री प्रदीप मिश्रा ने एक प्रसंग उल्लेखित करते हुए कहा कि अयोध्या में जब माता सीता आईं तो उन्होने वहाँ भोजन नहीं किया वह शांति पूर्वक बिना भोजन के ही रहीं, लेकिन जब सातवें दिन यह बात उनकी माता को पता चला तो उन्होने सीता से इसका कारण पूछा। तब सीता जी बोली कि मेरे पिता जनक ने कहा था कि जिस घर में अपने भानेज (भांजे) की हत्या की गई हो वहाँ भोजन नहीं करना चाहिये, यह बात जब राजा दशरथ को पता चली तो चिंतामग् हो गये, उन्हे स्मरण आया कि श्रवण कुमार ने मरते-मरते मुझसे कहा था कि मामाजी, मेरे पिता व आपकी बहन प्यासी हैं उन्हे पानी अवश्य पिला देना...। अब तो राजा दशरथ भी विचलित हो गये और उन्होने तत्काल गुरु विश्वामित्र के पास जाकर इस दोष से मुक्ति का उपाय पूछा। गुरु वशिष्ठ ने कहा कि यदि 1000 हजार ब्राह्मणों को भोजन करा दिया जाये तो इस दोष से निवृत्ति हो सकती है। राजा दशरथ को कुछ शांति मिली लेकिन यह बात सीता जी को बताई गई और कहा गया कि तब तो वह घर में भोजन करेंगी। तब फिर माता सीता ने कहा कि मेरे पिता जनक ने इसकी निवृत्ति कुछ अलग बताई है, उन्होने कहा कि उन्होने बताया था जिस ब्राह्मण ने कभी कहीं बाहर कोई दान न लिया हो और भोजन न किया हो ऐसे ही केवल एक ब्राह्मण को भोजन कराने से इस पाप से निवृत्ति हो सकती है।
जब मंदोदरी ने रावण को
राम के घर अयोध्या भेजा
जब यह बात राजा दशरथ तब पहुँची तो पता चला कि ऐसा ब्राह्मण तो शायद पूरी पृथ्वी पर ढूंढना भी मुश्किल है, कोशिश भी की गई लेकिन असंभव रहा। तब उन्होने स्वयं राजा जनक से ही ऐसे किसी एक ब्राह्मण की जानकारी चाही, स्वयं राजा जनक ने कहा कि ऐसा ब्राह्मण वैसे तो पूरी पृथ्वी पर नहीं है लेकिन फिर भी संयोगवश सिर्फ रावण ही एक ब्राह्मण पुत्र है जिसने कभी किसी के यहाँ जाकर भोजन नहीं किया। तब महाराज रावण को राजा दशरथ ने निमंत्रण भेजा। यह निमंत्रण रानी मंदोदरी के हाथ लगा। उन्होने पढ़ा तो उन्होने पहले रावण को कहा कि महाराज आप एक ब्राह्मण है और आपका कर्तव्य है कि आप भी दक्षिणा लेकर भोजन ग्रहण किया करें। रावण ने कहा मेरे जैसे दशानन को कौन बुलायेगा तब मंदोदरी मौका देखकर उन्हे कहा कि आपके लिये यह निमंत्रण आया है कृपया यहाँ अवश्य जायें। रावण ने खुशी से धर्मपत्नि मंदोदरी के मार्ग प्रशस्त करने पर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। रावण यहाँ बिना अंहकार रुपी मुकुट लगाये एक ब्राह्मण के रुप में पहुँचा। दशरथ ने उनका अभिवादन किया पैर पढ़े। धर्मपत्नि मंदोदरी ने रावण को राम के घर भेज दिया था। यहाँ स्वयं रानी सीता ने उन्हे ससम्मान भोजन परोसा अंत में दक्षिणा के लिये ब्राह्मण श्रेष्ठ रावण से कहा कि तो रावण ने दक्षिणा में माता सीता से कहा कि यदि देना ही है तो फिर मुक्ति दे दीजिये। यह बात सुनते ही सीता ने कहा कि चूंकि मेरा विवाह हो चुका है इसलिये कुछ देने के पूर्व मुझे मेरे पति से पूछना आवश्यक है, इसलिये कृपया कुछ समय रुकें । जब माता सीता ने रामजी से पूछा कि वो तो मुक्ति मांग रहा है तो राम जी ने कहा कि दे दो। यदि भक्त मांग रहा है तो दे देना चाहिये। पर माता सीता ने कहा कि कैसे दे दूं यदि दिया तो मुझे उसे घर जाना पड़ेगा क्योंकि भक्ति के बिना मोक्ष संभव नहीं है और मेरा एक नाम भक्ति भी है। राम जी ने कहा कि वो भक्तराज हैं और उन्हे आप यह अवश्य दें। इस प्रकार सीता ने उन्हे मुक्ति दे दी।
राम जी ने भी रावण के पैर पड़े, और रामेश्वर तीर्थ बना
पं. प्रदीप मिश्रा ने बताया कि इस प्रकार धर्मपत्नि मंदोदरी के कारण रावण को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होने कहा कि ''अहंकार में तीनो गये, धन, वैभव और वंश, न मानो तो तीनो देखो रावण, कौरव और कंस''। उन्होने आगे बताया कि रामेश्वर तीर्थ की स्थापना के समय भी जब कोई पंडित सुलभ नहीं हुआ तो महापंडित रावण को बुलाया उन्होने रामेश्वर तीर्थ की स्थापना कराई। यहाँ अपने पिता का अनुशरण करते हुए मर्यादापुरुषोत्तम राम ने अपने भी ब्राह्मण रावण के पैर पढ़े। श्री मिश्रा ने कहा कि बच्चों को सिखाने के पहले आज के माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिये कि वह स्वयं संस्कारित हो, यदि वह किसी संत को प्रणाम करेंगे, किसी धर्म कार्य में लगेंगे, मंदिर रोज जायेंगे तो स्वयं ही बच्चा अनुशरण करेगा और यदि वह घर बैठकर टीवी देखेंगे बच्चे से कहेंगे कि बेटा भागवत सुन आ तो वह थोड़े ही जायेगा। हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा।
और तोते ने कथा सुन ली
भागवत जी महात्म्य समझाते हुए पं.श्री मिश्रा ने कहा कि एक बार जब माता पार्वती ने भोलेनाथ से कहा कि कोई ऐसी कथा सुनाईये जिसे सुनकर मनुष्य अमर हो जाये। तब भोलेनाथ ने माता से कहा कि कथा दो प्रकार से सुनी जाती है एक में कथा सुनने वाला हूँ-हूँ का हुंकार भरता है और कथा सुनाने वाला सुनाता है व दूसरे में सामने बैठकर मुँह देखा करता है। माता ने कहा कि मैं तो मुँह रोज देखती हूं अभी हुंकार भरती रहूंगी आप कथा सुनाते रहना। कथा शुरु हुई, भागवत के दसवे स्कंध में जब श्रीकृष्ण जी का वर्णन आया तो माता पार्वती उसमें डूब गईं और सो गई खो गई। इधर यहीं एक तोते का अंडा रखा हुआ था जिसमें बैठा बच्चा भी कथा सुन रहा था । वह बाहर निकल आया था उसने देखा कि माता जी सो गई हैं और हुंकार नहीं भरेगी तो कथा अधूरी रह जायेगी इसलिये उसने हुंकार भरना शुरु कर दी शिव जी कथा सुनाते रहे। कथा तब पूरी हुई तो शिव जी ने कहा कि बोलो भागवत महारानी की जय, जब तोते ने जय भी कर दी। जय सुनकर माता पार्वती जाग गईं। शिवजी ने कहा कि कथा सुन ली तो माता घबरा गईं कि यदि कहा कि सो गई थी बहुत नाराज होंगे सो बोल दिया कि मैं 10 वे स्कंध में कृष्ण जी के प्रसंग के बाद खो गई थी। इस पर शिवजी का ध्यान गया कि फिर हुंकार कौन कर रहा था उन्होने देखा एक तोता पास ही बैठा उन्होने तत्काल उसे मारने के लिये दौड़े लेकिन तोता उड़कर भागने लगा, शिवजी ने पीछा कि या तो वह व्यास जी के आश्रम में उनकी पत्नि वटुका के पास तक गया उसी समय वटुका ने जंभाई ली और तोता उनके मुँह से पेट में गर्भ स्थान पर चला गया। अब व्यास पत्नि को मारने से पूर्व शिवजी ने व्यास जी कहा कि आप पत्नि हमारी दुश्मन है, व्यास जी ने समझाया कि चूंकि तोते ने अमरकथा सुन ली है इसलिये यदि आप मेरी पत्नि को मारेंगे भी तब भी वह तो अमर है। यह सुनकर शिवजी वापस लौट आये। 6 वर्ष तक गर्भ में छुपे रहने के बाद उक्त तोते का जन्म 5 वर्ष के बालक के रुप में हुआ। जिसका नाम शुकदेव जी महाराज पड़ा।
एक तो सोता और दूसरा सरोता
पं. मिश्रा ने कहा कि कथा में तीन तरह के श्रोता होते हैं एक तो सोता, मतलब जो सोता रहता है, दूसरा सरोता जो आयोजक से लेकर कथा स्थल तक और सबके पीछे ही पड़ा रहता है कहता है कि व्यवस्था ठीक नहीं है वो काटने का ही काम करता है और तीसरा होता श्रोता। उन्होने बताया कि जो कथा के पहले दिन आता है वह धर्म से आता है, कथा के मध्य में जो आता है वह कर्म से आता है और अंत में आता है वह शर्म से आता है।
भागवत जी की महिमा बताते हुए कहा कि जिस राजा परीक्षित का सर्प ने डंसा उसका भी मोक्ष हो गया। जबकि नारद जी ने ब्रह्मा जी से पूछा कि शास्त्र कहता है जिसकी सांप के काटने से मृत्यु होती है उसे नर्क जाना होता है तब ब्रह्मा जी ने भी भागवत जी का महत्व बताया। आज कथा के पहले दिन बड़ी संख्या में महिलाएं उपस्थित थी। कथा निर्धारित समय 2 से 5 बजे तक प्रतिदिन चलेगी।