Monday, April 7, 2008

विंध्‍याचल विंध्‍‍यवासिनी धाम

पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में है। गंगा की पवित्र धाराओं से प्रक्षालित विंध्य पहाड़ियों में प्रकृति ने अनुपम छटा बिखेर रखी है। विंध्य परिक्षेत्र, विंध्याचल पहाड़, विस्तृत वन और गंगा की कलकल करती धाराओं से लगा मात्र भूमि का एक खंड ही नहीं है, बल्कि संस्कृति का अद्भुत अध्याय भी है।
इसकी माटी की गोद में पुराणों के विश्वास और अतीत के अनेक तथ्य सोए पड़े हैं। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिध्दि प्राप्त होती है।विविध संप्रदाय के उपासकों को मनोवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। यहां पर संकल्प मात्र से उपासकों को सिध्दि प्राप्त होती है। इस कारण यह क्षेत्र सिध्द पीठ के रूप में विख्‍यात है।
आदि शक्ति की शाश्वत लीला भूमि मां विंध्यवासिनी के धाम में पूरे वर्ष दर्शनाथयों का आना-जाना लगा रहता है। चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर यहां देश के कोने-कोने से लोगों का का समूह जुटता है। ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं। इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है, जिसमें सृष्टि के प्रारंभ काल की कुछ इस प्रकार से चर्चा है-
सृजन की आरंभिक अवस्था में संपूर्ण रूप से सर्वत्र जल ही विमान था। शेषमायी नारायन निद्रा में लीन थे। भगवान के नाभि कमल पर वृध्द प्रजापति आत्मचिंतन में निमग्न थे। तभी विष्णु के कर्ण रंध्र से दो अतिबली असुरों का प्रादुर्भाव हुआ। ये ब्रह्मा को देखकर उनका वध करने के लिए दौड़े। ब्रह्मा को अपना अनिष्ट निकट दिखाई देने लगा। असुरों से लड़ना रजोगुणी ब्रह्मा के लिए संभव नहीं था। यह कार्य श्री विष्णु ही कर सकते थे, जो निद्रा के वशीभूत थे। ऐसे में ब्रह्मा को भगवती महामाया की स्तुति करनी पड़ी, तब जाकर उनके ऊपर आया संकट दूर हो सका।

मां के पताका (ध्वज) का महत्व
मान्यता है कि शारदीय व वासंतिक नवरात्र में मां भगवती नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि यह सूर्य चंद्र पताकिनी के रूप में जाना जाता है। यह निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी देवी के पताका में ही मिलेगा।
अष्टभुजा देवी
यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्‍तर दिशा की ओर मुख किए हुए अष्टभुजा देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को साधती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्‍तों की आठ भुजाओं से रक्षा करती हैं। ऐसी मान्यता है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह दल हैं। उसके बाद चौबीस दल हैं। बीच में एक बिंदु है जिसमें ब्रह्म रूप से महादेवी अष्टभुजा निवास करती हैं।