चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा कहते हैं। वर्ष के साढ़े तीन मुहूर्तों में गुड़ी पड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लडके ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिटककर उसको सजीव बनाया और उसकी मदद से प्रभावी शत्रुओं का पराभव किया।
इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। शालिवाहन ने मिट्टी की सेना में प्राणों का संचार किया, यह एक लाक्षणिक कथन है। उसके समय में लोग बिलकुल चैतन्यहीन, पौरुषहीन और परामहीन बन गए थे। इसलिए वे शत्रु को जीत नहीं सकते थे। मिट्टी के मुर्दों र्को विजयश्री कैसे प्राप्त होगी? लेकिन शालिवाहन ने ऐसे लोगों में चैतन्य भर दिया। मिट्टी के मुर्दों में, पत्थर के पुतलों में पौरुष और पराम जाग पड़ा और शत्रु की पराजय हुई।
सोते हुए के कानों में सांस्कृतिक शंख ध्वनि फूँकने और मृत मानव के शरीर में जीवन संचार करने के लिए आज भी ऐसे शालिवाहनों की जरूरत है। मानव मात्र में ईश्वर दत्त विशिष्ट शक्तियाँ हुई हैं। आवश्यकता है मात्र उन्हें जगाने की। समुद्र लाँघने के समय सिर पर हाथ रखकर बैठे हुए हनुमान को जरूरत है पीठ पर हाथ फेरकर विश्वास देने वाले जांबवंत की। शस्त्र त्यागकर बैठे हुए अर्जुन को जरूरत है उत्साहप्रेरक मार्गदर्शक कृष्ण की। संस्कृति के सपूत और गीता के युवकों का सत्कार करने के लिए आज का समाज भी तैयार है। आज के दिन पुरुषार्थी और परामी सांस्कृतिक वीर बनने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
ऐसी कई लोगों की मान्यता है कि इसी दिन श्री रामचंद्रजी ने बाली के जुल्म से दक्षिण की प्रजा को मुक्त किया था। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर गुड़ियाँ (ध्वजाएँ) फहराईं। आज भी घर के ऑंगन में गुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को 'गुड़ी पड़वा' नाम मिला है। घर के ऑंगन में जो 'गुड़ी' खड़ी की जाती है, वह विजय का संदेश देती है। घर में बाली का (आसुरी संपत्ति का राम यानी देवी संपत्ति ने) नाश किया है, ऐसा उसमें सूचक है।
गुड़ी यानी विजय पताका। भोग पर योग की विजय, वैभव पर विभूति की विजय और विकास पर विचार की विजय। मालाबार में यह उत्सव विशिष्ट ढंग से मनाया जाता है। घर के देवगृह में घर की सर्व सम्पत्ति और शोभायमान चीजों को व्यवस्थित ढंग से रखा जाता है। संवत्सर प्रतिपदा के दिन सुबह उठकर अपनी ऑंखें खोलकर गृहलक्ष्मी के साथ प्रभु के दर्शन करते हैं।
घर का मुख्य व्यक्ति संपत्ति और ऐश्वर्य से सुशोभित देव की आरती उतारता है।
मालाबार की इस प्रथा के पीछ भारतीय संस्कृति की झलक दिखाई देती है। सुबह उठकर, 'कराग्रे वसते लक्ष्मी:' इस श्लोक को चरितार्थ करते हुए हाथ में बसे हुए देवताओं का दर्शन करो, ऐसा जिन संस्कृति ने कहा है, उस संस्कृति के स्वर में, 'वर्ष की सुबह' यानी प्रतिपदा के दिन गृहलक्ष्मी से युक्त देवता का प्रथम दर्शन करना चाहिए। प्रात: शुभदर्शन करने वाले का दिन अच्छा बीतता है, ऐसी हमारी मान्यता है। वर्षारंभ के दिन प्रभु का दर्शन करने वाले का वर्ष अच्छा बीतेगा, इसमें कौन-सा आश्चर्य है?
गुरु समर्थ रामदास स्वामी को समर्पित राज्य प्रसाद के रूप में वापस मिलने के बाद जिस भावना से छत्रपति शिवाजी ने राज्य चलाया था, उसी भाव से वर्षभर प्रभु द्वारा भेजे हुए ऐश्वर्य का उपभोग करो, ऐसा यह प्रथा सूचित करती है।
इस दिन नीम का रसपान किया जाता है। मंदिर में दर्शन करने वाले को नीम और शक्कर प्रसाद के रूप में मिलता है। नीम कड़ुवा है, लेकिन आरोग्य-प्रद है। प्रारंभ में कष्ट देकर बाद में कल्याण करने वालों में से यह एक है।
नीम का सेवन करने वाला सदा निरोगी रहता है। प्रगति के रास्ते पर जाने वाले को जीवन में कितने 'कडुए घूँट' पीने पडते हैं, इसका भी इनमें दर्शन है। संक्षेप में, यह उत्सव मृत मानव में चेतना भरकर उसकी अस्मिता को जागृत करता है, साथ-साथ मानव को मिली हुई शक्ति, संपत्ति और बुध्दि ईश्वरदत्त है, समझाकर उसमें समर्पण की भावना को जगाता है।
इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। शालिवाहन ने मिट्टी की सेना में प्राणों का संचार किया, यह एक लाक्षणिक कथन है। उसके समय में लोग बिलकुल चैतन्यहीन, पौरुषहीन और परामहीन बन गए थे। इसलिए वे शत्रु को जीत नहीं सकते थे। मिट्टी के मुर्दों र्को विजयश्री कैसे प्राप्त होगी? लेकिन शालिवाहन ने ऐसे लोगों में चैतन्य भर दिया। मिट्टी के मुर्दों में, पत्थर के पुतलों में पौरुष और पराम जाग पड़ा और शत्रु की पराजय हुई।
सोते हुए के कानों में सांस्कृतिक शंख ध्वनि फूँकने और मृत मानव के शरीर में जीवन संचार करने के लिए आज भी ऐसे शालिवाहनों की जरूरत है। मानव मात्र में ईश्वर दत्त विशिष्ट शक्तियाँ हुई हैं। आवश्यकता है मात्र उन्हें जगाने की। समुद्र लाँघने के समय सिर पर हाथ रखकर बैठे हुए हनुमान को जरूरत है पीठ पर हाथ फेरकर विश्वास देने वाले जांबवंत की। शस्त्र त्यागकर बैठे हुए अर्जुन को जरूरत है उत्साहप्रेरक मार्गदर्शक कृष्ण की। संस्कृति के सपूत और गीता के युवकों का सत्कार करने के लिए आज का समाज भी तैयार है। आज के दिन पुरुषार्थी और परामी सांस्कृतिक वीर बनने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
ऐसी कई लोगों की मान्यता है कि इसी दिन श्री रामचंद्रजी ने बाली के जुल्म से दक्षिण की प्रजा को मुक्त किया था। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर गुड़ियाँ (ध्वजाएँ) फहराईं। आज भी घर के ऑंगन में गुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को 'गुड़ी पड़वा' नाम मिला है। घर के ऑंगन में जो 'गुड़ी' खड़ी की जाती है, वह विजय का संदेश देती है। घर में बाली का (आसुरी संपत्ति का राम यानी देवी संपत्ति ने) नाश किया है, ऐसा उसमें सूचक है।
गुड़ी यानी विजय पताका। भोग पर योग की विजय, वैभव पर विभूति की विजय और विकास पर विचार की विजय। मालाबार में यह उत्सव विशिष्ट ढंग से मनाया जाता है। घर के देवगृह में घर की सर्व सम्पत्ति और शोभायमान चीजों को व्यवस्थित ढंग से रखा जाता है। संवत्सर प्रतिपदा के दिन सुबह उठकर अपनी ऑंखें खोलकर गृहलक्ष्मी के साथ प्रभु के दर्शन करते हैं।
घर का मुख्य व्यक्ति संपत्ति और ऐश्वर्य से सुशोभित देव की आरती उतारता है।
मालाबार की इस प्रथा के पीछ भारतीय संस्कृति की झलक दिखाई देती है। सुबह उठकर, 'कराग्रे वसते लक्ष्मी:' इस श्लोक को चरितार्थ करते हुए हाथ में बसे हुए देवताओं का दर्शन करो, ऐसा जिन संस्कृति ने कहा है, उस संस्कृति के स्वर में, 'वर्ष की सुबह' यानी प्रतिपदा के दिन गृहलक्ष्मी से युक्त देवता का प्रथम दर्शन करना चाहिए। प्रात: शुभदर्शन करने वाले का दिन अच्छा बीतता है, ऐसी हमारी मान्यता है। वर्षारंभ के दिन प्रभु का दर्शन करने वाले का वर्ष अच्छा बीतेगा, इसमें कौन-सा आश्चर्य है?
गुरु समर्थ रामदास स्वामी को समर्पित राज्य प्रसाद के रूप में वापस मिलने के बाद जिस भावना से छत्रपति शिवाजी ने राज्य चलाया था, उसी भाव से वर्षभर प्रभु द्वारा भेजे हुए ऐश्वर्य का उपभोग करो, ऐसा यह प्रथा सूचित करती है।
इस दिन नीम का रसपान किया जाता है। मंदिर में दर्शन करने वाले को नीम और शक्कर प्रसाद के रूप में मिलता है। नीम कड़ुवा है, लेकिन आरोग्य-प्रद है। प्रारंभ में कष्ट देकर बाद में कल्याण करने वालों में से यह एक है।
नीम का सेवन करने वाला सदा निरोगी रहता है। प्रगति के रास्ते पर जाने वाले को जीवन में कितने 'कडुए घूँट' पीने पडते हैं, इसका भी इनमें दर्शन है। संक्षेप में, यह उत्सव मृत मानव में चेतना भरकर उसकी अस्मिता को जागृत करता है, साथ-साथ मानव को मिली हुई शक्ति, संपत्ति और बुध्दि ईश्वरदत्त है, समझाकर उसमें समर्पण की भावना को जगाता है।