Thursday, February 28, 2008

तुमसे क्या उम्मीद की जाये, आप किसी काम के नहीं हो (खुसुर:फुसुर)

सीहोर (घुमक्कड़) । एक बार फिर नगर की एक सबसे महत्वपूर्ण संस्था की बैठक लीक से हटकर एक नये स्थान पर की गई, असल में हर-बार छुपकर करने के बाद भी बैठक की बातें फैल जाती हैं इसलिये इस बार स्थान ही बदल दिया गया था, जो बैठक पहले चार महिने में एक बार होती थी वो अब महिने में चार बार होने लगी है। इस बार की बैठक क्या थी, सीधे-सीधे मुद्दे की बात यह थी कि भईया पिछली बैठक में तो स्पष्ट नहीं हुआ था कि विकास कैसे होगा लेकिन अब तो 'मौसम' आ गया है अब तो 'विकास' हो ही जाना चाहिये।
इस संस्था के प्रमुख जो हैं वह अध्यक्ष के रुप में बैठते हैं और सामने बैठक में जो तरह-तरह की उनकी पसंद वाले प्रतिनिधि रहते है वह बैठते हैं। फिर खिचडी पकना शुरु होती है कि आगे कैसे 'विकास' जारी रखा जाये। विकास मतलब 'विकास', मतलब सबका विकास....अरे भाई विकााााााााास अब भी नहीं समझे ?
इस बार की बैठक पिछली बार की बैठक से यादा गंभीर थी। पिछली बार वाली बैठक में सिर्फ बातचीत की गई थी कि किस प्रकार 'विकास' किया जाना है लेकिन जब 'विकास' शुरु ही नहीं हुआ तो आज सारे लोग पूरी तैयारी से उपस्थित हुए। उन्होने बैठक के शुरु होते ही शिकायतों की झडी लगा दी और वह आपा खोने की स्थिति में आ गये। इस पर अध्यक्ष ने अपनी गरिमा का बखान किया कि भाई मैं अध्यक्ष हूँ....और उन्होने जाने क्या-क्या बोला तब जाकर सब शांत हुए।
एक ने कहा कि 'तुमसे हम क्या उम्मीद रखें....तुम किसी काम के नहीं हो....। दूसरे ने बोला 'मैने कहा भी था कि उस वाली को वहाँ से हटा दो, लेकिन वो आज तक नहीं हटाई गई जब जाता हूँ वो ही बैठी रहती है वहाँ, उसे दूसरी जगह क्यों नहीं किया जा रहा है'। तीसरे ने तो स्पष्ट ही कह दिया कि 'कि हम फुकलेट घूम रहे हैं तुम्हारे अपने वाले मजे उठा रहे हैं'। चौथा और भी नाराज था अचानक बोल पड़ा 'लगता है जैसे प्रशासन हमें चला रहा हो'। सब अपनी-अपनी बात रख रहे थे। अचानक सामने बैठा अध्यक्ष संभलते हुए बोला कि नाराज क्यों होते हो भाई.....मैने तुम्हारे लिये सब किया है...फिर वो भी अपनी-अपनी बोलने का प्रयास करने लगा। लेकिन आज तो कोई उसकी सुनने को तैयार ही नहीं था। सब अपना आपा खोये हुए थे। जाने क्या-क्या बोल रहे थे। भड़ास निकलने के बाद अंतत: सबने मांग की कि भैया अब तो 'मौसम' आ गया है। मौसम में ही तो चलती है, मौसम में ही तो बंटता है। पिछली बार भी मौसम आते ही खूब चलवाये थे आपने, सबको पूरा-पूरा लाभ मिला था, अच्छा-खासा मामला बन गया था। इस बार भी चलवाना ही है जल्दी चलवाओ ताकि 'मौसम' का पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सके। बरना फिर मौसम बिगड़ जाये बादल आ जायें, बादल गरज जायें....बिजली कड़क जाये...तो फिर गया अपना तो साल। कितनी मेहनत के बाद मौसम के शुरुआत में ही ऐसी स्थिति बनती है कि 'मौसम' का लाभ उठाया जा सके। सबने अध्यक्ष से कहा कि देखो-देखो मौसम बदल गया है, अब आप भी संभलो, और हमारा ख्याल रखते हुए इस मौसम में कुछ करो। इससे हमारा ही नहीं आपका और सबका कल्याण हो जायेगा। बैठक में इस बार भी अंत में निष्कर्ष निकाला गया कि अब आगे क्या करना है....निष्कर्ष निकला कि एकदम सही-सही 'मौसम' आ गया है इसलिये तत्काल कार्यवाही शुरु करते हुए सबके गले तर कर दिये जायें....बैठक में लग रही गर्मी से और बातचीत से हुई गर्मागर्मी में फिर सबने पानी पिया और यह कहते चले गये कि देखो भैया 'मौसम' बदल गया है।