Monday, January 12, 2009

खूब बिक रहे सुअर की चर्बी से बने फुज्‍जैन के तोश, हर दिन सुअरों की क्विंटलों चर्बी निकल रही, जिसे खरीद रहे बेकरी वाले, बड़ी कम्पनियाँ भी खरीदती हैं

सीहोर 11 जनवरी (आनन्‍द भैया गांधी)। गंभीर सोच का विषय है 1857 में जब पूरा देश गोरे अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हुआ था तो मंगल पाण्डे जैसे देश भक्त के साथ हर एक हिन्दुस्तान का नागरिक इसलिये कंधे से कंधा मिला रहा था क्योंकि अंग्रेजों ने हमारे धर्म को भ्रष्ट करना शुरु कर दिया था..... उन्होने जानबूझकर हिन्दुओं के  लिये पूय गौमाता के गौमांस से निकलने वाली चर्बी और मुसलमानों के लिये नफरत का प्रतीक सुअर की चर्बी का उपयोग करके कारतूस बनाये थे.... ऐसे कारतूस जिन्हे सिर्फ मुँह से खोला जा सकता था....उनमें गाय और सुअर की चर्बी लगी थी....जब देश के क्रांतिकारियों को, नागरिकों को, सिपाहियों को पता चला तो उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल लिया......यह हमारे धर्म की बात थी..... ईसाई जाति तो मांसाहारी ही है लेकिन हिन्दुस्तान की सरजमीं पर ऐसी संस्कृति विद्यमान नहीं थी....तब धर्म की रक्षा के लिये, हमारे देश की संस्कृति की रक्षा के लिये हर एक नागरिक इंकलाब जिंदाबाद के नारे बुलंद कर रहा था...सिपाहियों ने कारतूस फेंक दिये थे और अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिये उठ खड़े हुए थे...सिर्फ अपने धर्म की रक्षा के लिये....।

      हर एक नागरिक, मनुष्य की जीवन सत्ता उसके धर्म से जुड़ी हुई है, धर्म ही उसे सही दिशा, सही ज्ञान और अंत में अच्छी सद्गति दिखा सकता है...।

      आज हम हमारे पूर्वजों, हमारे क्रांतिकारियों के 200 साल तक के सतत संघर्ष के बाद आजाद हुए....अपने धर्म की रक्षा के लिये जिन्होने हंसकर फांसी पर झूल गये और सीने पर गोलियाँ खाई आज हम उन्ही धर्मात्माओं-हुतात्माओं के दम पर आजाद हैं।

      लेकिन धीरे-धीरे आजाद भारत में हमारे ही बीच बैठे व्यापारियों ने ऐसी चाल चली कि हमारा धर्म भ्रष्ट करना शुरु कर दिया। हम मुख्यत: 1857 में जिस चर्बी वाले कारतूसों के कारण पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हो गया था उसी चर्बी को लेकर आज एक तथ्यात्मक समाचार आपके लिये लायें हैं.....।

      इन दिनों नगर में जो सबसे खस्ता और अच्छा ''तोश'' बनकर बाहर से आ रहा था वह एक धार्मिक नगरी से आ रहा है जिसका नाम हम कुछ बदलकर लिखेंगे ''फुज्‍जैन''। फुज्‍जैन से आ रहा तोश बहुत खस्ता है, और यह महंगा भी है लेकिन इसे बहुत लोग पसंद करने लगे हैं और खाते भी हैं। यह इतना अधिक खस्ता क्यों होता है जब हमने इसकी जांच की तो हमारे पैरों तले से जमीन खिसक गई और धीरे-धीरे रहस्य की ऐसी पर्ते खुलीं की फिर आप तक यह बात पहुँचाना जरुरी हो गया।

      असल में फुज्‍जैन में बनने वाले तोश या बेकरी के सामानों में खुलकर सुअर-भैंस-पाड़े-बकरे की चर्बी का उपयोग होता है। इसमें सर्वाधिक अच्छी, सस्ती सुअर की ही चर्बी मिलती है और सुअर की चर्बी का उपयोग सारे बेकरी वाले करते हैं। असल में तोश बनाने में जितनी मशक्कत है, उसे खस्ता करने में भी उतनी ही आफत। जब तक अधिक मात्रा में इसमें घी या तेल नहीं डाला जाता तब वह अच्छी तरह खस्ता नहीं बन पाता, इसलिये फुज्‍जैन वाले लोग तोश में सुअर की चर्बी खूब डालते हैं और उसी से पूरा सामान बनाते हैं।

      बेकरी पर बनने वाले बिस्कुट हो या केक, पेस्टी हो या कुछ और हर सामान में बाजार में मिलने वाला डालडा घी, या सोयाबीन तेल अथवा शुध्द घी को नहीं डाला जाता....उसमें तो मांस चर्बी वाला तेल ही डाला जाता है, क्योंकि यही सबसे सस्ता पड़ता है। हालांकि सब बेकरी वाले यही करते हैं ऐसी जानकारी नहीं है। हो सकता है कुछ और भी उपयोग होता हो लेकिन चर्बी का तेल भी उपयोग होता है ऐसी जानकारी अवश्य है। तो आगे से सावधान रहिये फुजैन के प्रसिध्द तोश खाने के पहले।

अब दूसरे ढंग से यही बात सोचिये...

      हर दिन सिर्फ सीहोर नगर में ही करीब 10-12 सुअर कटते हैं। यदि हर सुअर को 1 क्विंटल को माना जाये तो उसमें से 38 से 40 किलो चर्बी निकलती हैं मतलब 10 सुअरों से 4 क्विंटल मतलब 400 लीटर चर्बी का तेल निकलता है। इसके अलावा कटते हैं करीब 40-50 से अधिक बकरे, इनमें से हिसाब को छोड़कर सीधे अंदाज से लेते हैं कि करीब 200 लीटर से अधिक चर्बी बकरे की निकलती है। और भैंस-पाड़े भी हर दिन करीब 6 से 10 तक कटते हैं जिनमें से 50 से 100 लीटर चर्बी निकलती है। कुल मिलाकर हर दिन 700 से 800 लीटर चर्बी सीहोर नगर में ही निकलती है इतना अधिक चर्बी के तेल को क्या नाले में बहाया जाता है ? या बेच दिया जाता है ? आप भी सोचते जाईये....? इसे बेचा ही जाता है, वह भी अच्छे दाम पर।

भरते जाते हैं चर्बी से पीपे

      सीहोर में हर दिन जानवर काटने वाले लोग उनसे निकलने वाली चर्बी को एक पीपे में भरते जाते हैं और जैसे ही यह दो-तीन क्विंटल एकत्र कर लेते हैं अपने स्तर पर भोपाल या बैरागढ़ जाकर बेच आते हैं। स्थानीय लोग भी इनसे आये दिन चर्बी खरीदते रहते हैं।

कैसे निकलती है चर्बी, किसकी चर्बी कैसी होती है ? चर्बी को कहते हैं जाल

      सबसे पहले बात करते हैं बकरे की। जो बकरा बदिया होता है, उसमें सर्वाधिक चर्बी रहती है, एक 50 किलो के बकरे में करीब 10 किलो चर्बी का जाल निकलता है। मांस काटने वाले जानवर के शरीर से चर्बी को जाल कहकर अलग करते हैं। यह थोड़ी बहुत मेहनत और अनुभव के आधार पर आसानी से अलग कर दी जाती है। चर्बी का जाल सामान्य देशी बकरे में 15 किलो के बकरे में मात्र 300 ग्राम निकलता है, यदि दाना खाया हुआ अच्छा बकरा है तो सवा किलो तक निकलती है। भैंसा या पाड़े में चर्बी का जाल मुर्रा भैंस में 13 से 15 किलो का निकलता है जबकि मरी भैंस में 5 किलो तक निकल जाती है। बकरे की चर्बी का घीस देशी घी की तरह दानेदार होता है, जबकि भैंस की चर्बी डालडा घी की तरह जमती है।

      लेकिन चर्बी के मामले में सुअर तो वरदान है। इसमें 40 प्रतिशत चर्बी होती है, जितना पुराना होता है उतनी अधिक चर्बी निकलती है। मसलन इतनी अधिक चर्बी इसमें होती है कि कोई अंग कट जाये तो अंदर से सफेद अंग दिखता है जबकि खून बहुत कम निकलता है। सुअर चर्बी के मामले में 100 किलो का सुअर मे 40 किलो चर्बी का जाल रहता है, हर अंग से चर्बी निकलती है। इसकी चर्बी खोपरे की तेल की तरह होती है पिघलाओ तो तेल और ठंडी होने पर जम जाती है। सफेद रहती है। चम्मच से काटकर इसकी चर्बी या घी निकालना पड़ता है, इतना जम जाता है।

हर मंगल और रविवार को

      हर मंगलवार और रविवार को मुख्यत: सुअर कटते हैं और हाट बाजार में बिकते हैं, सारे ही हाट बाजार में मांस बिकता है। जबकि हर दिन सुअर  सीहोर से कटकर भोपाल बैरागढ़ जाता है, लेकिन चर्बी रह जाती है। इसकी चर्बी भी अच्छे दाम पर बिकती है। मुख्यत: चर्बी के मामले में दिल्ली और जबलपुर चर्बी जाने की सूचनाएं सर्वाधिक हैं। लेकिन अन्य लोग भी इसका उपयोग करते हैं। साबुन बनाने में भी इसका उपयोग होता है।

      तो अब आप ही सोचिये कि पूरे देश में मांसाहारियों की संख्या सर्वाधिक है, विश्व में तो है ही, और उससे निकलने वाली चर्बी आखिर कहाँ जाती है ? कुछ पैकिंग के सामान जो तले हुए आते हैं उनमें वेजिटेबल आईल लिखा रहता है, वह क्या होता है हमें इसकी जानकारी नहीं है।

 

 

 

खास बातें

      **  एक 100 किलो के सुअर में 38-40 किलो निकलती है चर्बी

      ** बदिया बकरा जो 22 किलो के आसपास हो तो उसमें 4 किलो निकलती है चर्बी, 50 किलो का बकरा करीब 10 किलो चर्बी देता है।

      ** भैंस-पाड़े की चर्बी सर्वाधिक निकलती है, मरी भैंस भी 5 किलो चर्बी देती है।

      ** मुर्रा भैंस में 13 से 15 किलो निकलती है चर्बी।

      ** लाखो जानवर हर दिन कटते हैं और कई लाख लीटर चर्बी निकलती हैं आखिर उसका क्या होता है उसका ? सोचिये

क्योंकि शायद यही चर्बी आप भी हर दिन खा रहे हैं...

 

 

  

चर्बी का मतलब तेल

      अरे भाई मक्खन देखा है आपने या फिर घी देखा होगा,  हाँ ठीक वैसी ही चर्बी होती है, थोड़ा रुप-रंग अलग होता है लेकिन सुअर-पाड़े,बकरे के शरीर से निकलने वाली चर्बी का एक टुकड़ा काटकर जैसे ही गर्म तवे  पर रखते हैं वह मक्खन या जमे हुए घी की तरह पिघलकर तेल में बदल जाता है.....एक बार मक्खन थोड़ी देर से पिघलेगा लेकिन चर्बी तो गर्म करते ही पिघल जाती है।

      अब सोच लीजिये कितना आसान है चर्बी का तेल बनाना.... और क्या-क्या होता होगा इसका.. मतलब चर्बी का...., खूब सोचिये.. टालिये मत....यह आपकी संस्कृति, धर्म का सवाल है......।

 

 

 

 

 

विदेशों में तो यह भी बनता है

चाकलेट, च्विंइगम, साबुन, तोश, ब्रेड, बाजार में बिकने वाले तले हुए सामान के पाऊच चिप्स आदि.... शायद और भी बहुत कुछ.
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