Monday, October 6, 2008

बहादुर शाह जफर के जमाने का ईद उल जुहा

भारत के अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के राज्यकाल में बकरीद के अवसर पर गाय, भैंस, बैल और बछड़ों की कुर्बानी कानूनी रूप से प्रतिबन्धित थी और उन दिनों अगर कोई व्यक्ति इनकी जिबह करता हुआ पाया जाता था तो उसे तोपसे उड़ा देने का प्रावधान था-इस तथ्य से क्या आप परिचित हैं ? अंग्रेजों द्वारा प्रकाशित 'प्रेस लिस्ट ऑफ म्यूटिनी पेपर्स' में ही नहीं, बल्कि 'तारीखे उरुजे-सल्तनते-इंग्लीशिया'- जैसे विश्वसनीय इतिहास-ग्रंथों में भी बार-बार इस बात का उल्लेख आता है कि बहादुरशाह के शासनकाल में बकरीद के आस-पास गो हत्या करने वाले व्यक्तियों को बगैर मुकदमा चलाये मृत्युदण्ड दिया जाता था। इस दिशा में इन पुस्तकों में उद्धत आदेश-निर्देश इस बात के सूचक हैं कि बादशाह गोवध के प्रति हिन्दू जनमानस की अदम्य निष्ठा का कितना सम्मान करते थे।
'तारीखे-उरुजे-सल्तनते इंग्लीशिया' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ 688 पर स्पष्ट रूप से अंकित है कि सुप्रसिद्ध विद्वान् मौलाना फजले-हक खैराबादी ने बहादुरशाह के प्रशासन के लिये जो संविधान तैयार तैयार किया था, उसकी प्रथम धारा यही थी कि बादशाह के राज्य में कहीं भी गाय जिबह न की जाय। इसी तरह उस काल के सुप्रसिद्ध खबरनवीस जीवनलाल ने अपनी बहुचर्चित डायरी में दिनांक 28 जुलाई सन् 1857 ई. के अन्तर्गत लिखा था-बादशाह ने हुक्म दिया कि जनरल तथा फौज के दूसरे आला अफसरान के पास हिदायती खत भेजे जायं कि ईद के मौके पर कोई गाय जिबह न की जाय और खबरदार किया कि अगर कोई मुसलमान ऐसा करते हुए पाया जाता है तो उसे तोप से उड़ा दिया जाय। यही नहीं, किसी मुसलमान ने गायकी कुर्बानी देने के लिये अगर किसी को कोई मशवरा दिया तो उसे भी सजा-ए-मौत दी जाय।
जीवनलाल ने अपनी डायरी में आगे लिखा था-दरबार में मौजूद हकीम एहसानुल्लाह ने जब इस हुक्म की मुखालिफत करते हुए सलाह दी कि उसे शाया करने के पहले उसके बारे में मौलवी-मुल्लाओं से सलाह-मशवरा करना जरूरी है तो बादशाह को बहुत गुस्सा आ गया और दरबार खत्म करते हुए वे फौरन अपने महल में चले गये।
'प्रेस लिस्ट ऑफ म्यूटिनी पेपर्स' 3 एस (31)-के अनुसार बादशाह के आदेश का पालन करते हुए उसी दिन अर्थात् दिनांक 28 जुलाई सन् 1857 ई. को सेनापति ने घोषणा की थी-बहादुर शहर कोतवाल को मालूम हो कि शाहंशाह के हुक्म के मुताबिक हर खासो आम को इत्तिला दी जाती है कि कोई भी मुसलमान शहर में ईद-उल-जुहा के अवसर पर गायकी कुर्बानी हरगिज न दें और अगर कोई इस हुक्म की उदूली करके गाय की जिबह करता हुआ पाया जाएगा तो उसे सजा-ए-मौत भुगतनी पड़ेगी।
इसी दिन जारी की गयी एक दूसरी घोषणा में कहा गया था-'खल्क खुदाका, मुल्क बादशाह का, हुक्म फौज के आला अफसर का'-जो कोई इस मौसम में बकरीद या उसके आगे-पीछे गाय, बैल, बछड़ा, बछड़ी, भैंस या भैंसा छिपाकर अपनी घर में जिबह और कुर्बानी करेगा, वह आदमी हुजूर शाहगंज का जानी दुश्मन समझा जायगा ओर उसको मौत की सजा होगी तथा जो कोई किसी पर इस बात की तोहमत एवं झूठा इल्जाम लगायेगा तो हुजूर की तरफ से उसकी जांच की जायगी, यानी अगर तोहमत का जुर्म साबित होगा तो उसको सजा होगी, नहीं तो जिसने उसकी तोहमत लगायी होगी उसको सजा मिलेगी और इसमें जिसका जुर्म एवं कुसूर साबित होगा, वह बेशक तोप से बांधकर उड़वा दिया जाएगा। ('प्रेस लिस्ट ऑफ म्यूटिनी पेपर्स',3 एस (31))
उसी पृष्ठ पर अन्यत्र अंकित है 'खल्क खुदाका, मुल्क बादशाह का, हुक्म फौज के आला अफसर का'-जो कोई ईद के आगे-पीछे, दिन में या रात में अथवा चुराकर घर में गाय, बैल, बछड़ा, बछड़ी, भैंस या भैंसा जिबह करेगा, वह बादशाह का दुश्मन होगा और तोपसे उड़ा दिया जायगा और जो शख्स झूठ कहेगा कि किसी ने चुराकर जिबह किया है तो उसकी रोकथाम की जायगी।
सेनापति द्वारा दिये गये इस आदेश का पालर करते हुए तत्कालीन शहर कोतवाल मुबारकशाह खां ने नगर भर में उसका ढिंढोरा पिटवा दिया था। उसके इस कृत्य पर सेनापति ने उसे पुन: लिखा था-बहादुर मुबारकशाह खां शहर कोतवाली को मालूम हो-क्योंकि तुमने कल शाही खत मिलते ही पूरे शहर में ढिंढोरा पिटवा दिया था और गाय की जिबह तथा कुर्बानी पर बंदिश लगा दी थी, इससे अब तुम्हें लिखा जाता है कि शहर के फाटकों पर इस तरह का मुकम्मल इंतजाम करो कि कोई भी गाय का व्यापारी आज से बकरीद के तीन दिन तक शहर में गाय या भैंस बेचने के लिये न ला सके और जिन मुसलमानों के घरों में गाय पली हों, उन्हें लेकर कोतवाली में बंधवा दिया जाय और गायों की पूरी हिफाजत की जाय, अगर कोई आदमी खुल्लमखुल्ला या छिपाकर गायों की अपने घरों में कुर्बानी करेगा तो यह बात उसकी मौत की वजह बनेगी।
ईद-उल-जुहा के अवसर पर गो वध के बारे में इस तरह का इंतजाम हो कि गाय बिकने के लिये भी शहर में न जाने पाये और पली हुई गायों का भी जिबह न हो। कोतवाली की ओर से इस बारे में जितनी भी कोशिशें की जायेंगी, वे हमारी खुशी की वजह बनेंगी, ज्यादा लिखने की जरुरत नहीं। ('प्रेस लिस्ट ऑफ म्यूटिनी पेपर्स, 61, संख्या 245')
इस पत्र के उत्तर में शहर कोतवाल ने हजारत जहांपनाह की सेवा में निवेदन करते हुए लिखा था-शहंशाहे-आलम की खिदमत में अर्ज है कि उन मुसलमानों के लिये जिनके घरो में गाय बंधी हैं, जो यह हुक्म दिया गया है कि उन्हें मंगवाकर ईद-उल-जुहा के खत्म होने तक कोतवाली में बंधवा दिया जाय, तो कोतवाली में इतनी जगह नहीं है कि चालीस-पचास गायें भी वहां खड़ी हो सकें। अगर शहर के सभी मुसलमानों के घरों की पली हुई गायें मंगायी जायेंगी तो उनके लिये जगह नहीं हो पायेगी। इस काम के लिये कोई बहुत बड़ी जगह या हाता होना चाहिये कि वहां वे छ:-सात दिनों तक बंद रहें, तो इस नमकख्वार की जानकारी में कोई ऐसी जगह नहीं है। गायों का मंगाया जाना उनके मालिकान के लिये भी ठीक या फायदेमंद नहीं साबित होगा, इसलिये कि अकलमंद और बेवकूद सभी तरह के लोग होते हैं। इसमें गाय के मालिकों की बगावत भी डर है और कहीं किसी दूसरी तरह की बात खड़ी न हो जाय। इसलिये अगर हुक्म हो तो थानेदार अपने इलाके के मुसलमानों से जिन-जिन लोगों के पाय गायें हों मुचलके पर ले लें। जैसा हुक्म होगा वैसा किया जायगा। परवरदिगार खुदा आप पर हमेशा मेहरबान रहे ओर सूरज-जैसी आपकी चमक में हरदम बढ़ोतरी करता रहे-फिदवी सैयिद मुबारकशाह खां कोतवाली, 7 जिलाहि अर्थात् दिनांक 26 जुलाई सन् 1857 ई. ('प्रेस लिस्ट ऑफ म्यूटिनी पेपर्स', 3 एस, संख्या 44)
शहर कोतवाल के इस पत्र के संदर्भ में उसे हिदायत देते हुए बादशाह की ओर से उसे सूचित किया गया था-उन मुसलमानों के, जिनके घरों में गायें हों, नाम लिख लिये जायं और फिर उनसे यह मुचलके लिखवा लिये जायें कि वे न खुल्लमखुल्ला ओर न चोरी से गोवध करेंगे। जिन घरों में गाये बंधी हों, वहां उसी तरह बंधी रहें। उन्हें तीन घरों में गाये बंधी हों, वहां उसी तरह बंधी रहें। उन्हें तीन दिन तक दाना-चारा उसी जगह पर खिलाया जाय और उन्हें चरने के लिये हरगिज न छोड़ा जाय। उनके मालिकान को अच्छी तरह यह बात समझ लेनी चाहिये कि तीन दिन बाद अगर एक भी गाय गायब मिली या अगर किसी ने छिपाकर उनकी कुर्बानी की तो वह सजा का हकदार होगा और जान से मार डाला जायगा। इस बात में बहुत खबरदार रहने की जरुरत है। क्योंकि कोतवाली में बंधवाने या उनके लिये अलग किसी जगह के इंतजाम करने की अब कोई जरुरत नहीं-दिनांक 26 जुलाई सन् 1857 ई.।
टिप्पणी-सभी थानेदारों को हिदायत दी गयी-दिनांक 30 जुलाई सन् 1857 ई.। स्मरणीय है कि यह सब पत्र-व्यहवहार मात्र एक दिन की अवधि सीमा में किया गया था। आज के युग में जब संचार-व्यवस्था लाख गुनी अच्छी हो गयी है, किसी भी सरकारी आदेश-निर्देश सम्बंधी उत्तर-प्रत्युत्तर में महीनों का समय लग जाता है और तब भी पूरी तरह उसका कार्यान्वयन नहीं हो पाता।
बहादुरशाह का राज्य धर्मनिरपेक्ष नहीं था, उसके आधारस्तम्भ हमेशा शरीयत के कानून रहे। इस तथ्य के बावजूद हिन्दू-विश्वास और मान्यताओं की रक्षा करने में वह जिस ईमानदारी के साथ निरन्तर सन्नद्ध रहा, उसकी आज के कथित धर्मनिरपेक्ष राजनेता कल्पना भी नहीं कर सकते। आज देश में हर रोज हजारों गाय और भैंसों की हत्या की जाती है, परंतु सरकार के बड़े से बड़े मंत्री में भी यह हिम्मत नहीं कि वह उसके विरोध में कोई कदम उठा सके।
संकीर्ण असाम्प्रदायिकता की अपेक्षा विराट् साम्पदायिकता अपने देश जन की भावनाओं का कितना ख्याल रख सकती है, यह बहादुरशाह के इन फरमानों से स्वत: सिद्ध है।