Thursday, January 10, 2008

शीर्षस्थ लोगों को बड़ी परीक्षाएं देनी पड़ती हैं - अवधेशानंद जी

आष्टा 8 जनवरी (फुरसत)। बड़े लोगों की, शीर्ष लोगों की भिन्न-भिन्न तरीके से परीक्षाऐं ली जाती हैं। परीक्षित के तीन अर्थ होते हैं पहला जिसके लिए लम्बे समय से प्रतीक्षा की जाऐ, दूसरा जिसको परीक्षा देनी पड़े और तीसरा जो पराशक्तियों द्वारा रक्षित हो। शीर्षस्थ लोगों के दास कभी भी बिना अनुमति के शस्त्र नहीं उठाते हैं, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र दो बार बिना आज्ञा के चल पड़ा था। पहला जब दुर्वासा व अम्बरीष पर संकट आया और दूसरा जब अश्‍वत्थामा ने पांडवों के नाश के लिए ब्रम्हास्त्र चलाया। इस संसार में जीव को चार भागों में बांटा गया हैं जड़, वनस्पति, पषु और मनुष्य। जिसमें मानव जीवन सर्वोत्तम हैं।
यह प्रखर और औजस्वी विचार आष्टा में आयोजित श्रीमद् भागवत् कथा के दूसरे दिन महामण्डलेश्‍वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज ने व्यक्त किए। स्वामी जी राजा परीक्षित का जन्म और युधिष्ठिर को ज्ञानानुभूति प्रसंग पर सारगर्भित उद्बोधन दे रहे थे। स्वामी जी ने कहा कि परीक्षित अर्थात् जिसके लिए प्रतीक्षा की जाती हैं, ऐसे समय की, लोगों की, युग की जो निराषा को ध्वस्त कर दे विचार को फैला दे यह सब जो कर दे वह परीक्षित हैं। बड़े-बड़े लोगों को भिन्न-भिन्न तरीके से बड़ी-बड़ी परीक्षाऐं देनी होती हैं उन्हें अपनी उपयोगिता को, आवश्‍यकता को सिध्द करना होता हैं, हर समय और संकट की घड़ी में भी। दूसरा परीक्षित जो कि पराषक्तियों द्वारा रक्षित हो, बड़ी-बड़ी शक्तियाँ जिसकी रक्षा करती हों। ऐसी शक्तियाँ जो छुपकर किसी की रक्षा करें वह परीक्षित हैं। पष्चिमी देषों ने चाहे जितनी उन्नत कोटि के दूरबीन या मिसाईल बना ली हो, लेकिन भारत के पास जो सूक्ष्म से सूक्ष्म चीजों व बातों को देखने की दृष्टि हैं वह आध्यात्म दृष्टि तो वह मात्र भारत के पास ही हैं पश्चिमी देषों के पास नहीं। तभी तो परीक्षित को उनके गुरूजी ने बतला दिया था कि मृत्यु आऐगी दिन में कभी भी।
स्वामी जी ने कहा कि चार प्रकार के संवाद होते हैं सूद व स्वामी का, विवेक व मैत्री का, कृष्‍ण व उध्दव का और सुख व परीक्षित का। जिस शिष्य का गुरू के प्रति पूर्ण समर्पण हैं उसे संवाद की आवश्‍यकता नहीं होती हैं, इसीलिए तो कहा जाता है कि गुरू से 5 चीजें बार-बार न पूछें - पहला कब, दूसरा कौन, तीसरा कैसे, चौथा कहाँ और पाँचवा क्या। इस बीच पूज्य स्वामी जी ने सुमधुर गीत संगीत के साथ गुरू गोविन्द माधव भज मन हरे.......और छूम छूम छननन बाजे मैया पाँव पैजनिया......भजन से श्रध्दालुओं को सम्मोहित कर लिया। साथ ही पूज्य प्रवर ने संत चरित्र पर तुलसीदास की चौपाई का सस्वर पाठ किया, अपनी कथा मण्डली के दक्ष साथियों के साथ स्वामीजी ने राग मालकोष, राग जय जय वंती, और राग यमन पर गान कर श्रध्दालुओं को हर्षोल्लासित कर दिया। स्वामी जी ने कहा कि इस संसार लोक में जीव को चार भागों में बांटा गया हैं और यह संसार इन्हीं चार जीवों के आसपास ही चलता हैं। पहला जड़ जिसमें धूल, पत्थर आते हैं जो सुप्त हैं यहाँ पर जाग्रति नाम की कोई चीज नहीं हैं। दूसरा वनस्पतियाँ जहाँ पर जाग्रति हैं, संचार हैं लेकिन यह बोल नहीं सकती। तीसरा संसार के पशु-पक्षी जो बोल सकते हैं लेकिन उन्हें हम समझ नहीं सकते लेकिन मानव जीवन ऐसा जीवन हैं जो कर्म, विचार, चिंतन, अभिव्यक्ति आदि से परिपूर्ण हैं। मनुष्य जीवन इन चारों जीवों में सर्वोत्तम हैं जो सुन सकता हैं, देख सकता हैं, अभिव्यक्त कर सकता हैं। इन चारों जीवों का काम एक ही हैं आहार, निद्रा, भय और परिवार वृध्दि (मैथुन) लेकिन मनुष्य इससे हटकर भी सत्य का अनुभव करता हैं उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त हैं, इसीलिए वह अपना उत्थान कर सकता हैं, जीवन सार्थक कर सकता हैं। इसलिए मनुष्य को भगवान के स्फूर्त रूप का ध्यान करना चाहिए। भगवान के रूप, लीला, नाम व धाम से मन को जोड़ना चाहिए।
पूज्य स्वामी जी ने कहा कि यह समूचा जगत ज्ञान व वेदों द्वारा नकारा गया हैं। साकार रूप में दिखने वाले प्रकृति रूप यह सब छलावा हैं, सच तो मात्र काल हैं, मृत्यु है क्योंकि यह मृत्युलोक हैं। क्योंकि मन, बुध्दि, चित्त द्वारा जो अनुभव होता हैं वह नाशवान हैं और असत्य हैं। इसीलिए तो प्रार्थना की गई हैं असतो मा सद् गमय.....। मानव तन दुर्लभ जरूर हैं लेकिन यह क्षण भंगुर हैं। यह मिटने वाला हैं इसे माया भाषित होती हैं अनुभव होती हैं लेकिन दिखती नहीं हैं। जिस तरीके से सपने में धन, कीर्ति, सुख, दुख, शीर्षस्थ पद् पर आसीन हो जाना सब कुछ मिल जाता हैं लेकिन सपना टूटते ही सारे सुख दुख समाप्त हो जाते हैं उनका यथार्थ जीवन से कोई रिष्ता नहीं रहता हैं। कथा का अर्थ तो यही हैं कि हम सबको अमृत प्राप्त हो ज्ञान प्राप्त हो।
स्वामी जी ने कहा संत के विचार से, ज्ञान से, अध्ययन से आपको सुखानुभूति प्राप्त होगी, जिस तरह से उत्तरा के पुत्र के जन्म से जो सुख युधिष्ठिर को मिला। साधना की पहली सीढ़ी का पहला कदम तप से हैं। संत के दर्शन का मतलब तप की प्रेरणा हैं क्योंकि वे तप करते हैं उन्हें मालूम हैं कि कैसे किसको किस रूप में ढालना हैं वे इस संसार को नियंत्रित करते हैं। जिस तरीके से ऊंट को नियंत्रित किया जाता हैं नकेल से, घोड़े को नियंत्रित किया जाता है लगाम से, हाथी को महावत नियंत्रित करता हैं अंकुश से। जब हमारा मन अति अभिमानी, अति असंयमशील भ्रष्ट और भ्रम के ताने बाने में उलझ जाऐं तब तप सबसे बड़ा शस्त्र हैं। पहला तप आहार विहार की शुचिता से मिलता हैं जिस साधक के पास आहार विहार की शुचिता नहीं वह साधना नहीं कर सकता हैं। साधु संतों के पास आहार विहार की बड़ी शुचिता होती हैं उनका भोजन ग्रहण, मनन, चिंतन, कहना और सुनना बड़ा संयत होता हैं। तब ही तो दर्षन की चरम स्थिति पर पहुँचे ऋषियों मुनियों ने जगत के पदार्थों का विश्‍लेषण कर इन्हें परिवर्तनषील और क्षण भंगुर बताया हैं। उन्होनें समूची सत्ता को मिथ्या कहा हैं। वेदों में भी इस बात का विवरण मिलता हैं। सत्य तो सिर्फ यही हैं ब्रम्ह सत्य..... जगत मिथ्या। जब मनुष्य मन स्वप्न के विकारों से, दूषित सपनों से मुक्त हो जाता हैं तब ही उसे मुक्ति मिलेगी और यह मुक्ति आपको दिलवाऐगी एकांत शैली। यह एकांत शैली मानव मन को स्थिर रखता हैं। सच्चे साधक के लिए तो यह जरूरी है कि वह संसार में अंधा, गूंगा व लंगड़ा बनकर रहे। स्वामी जी ने अपनी कथा को भारत माँ तेरी जय जय जय.....सुमधुर गीत के साथ प्रारम्भ किया। स्वामी जी ने आस्था नगरी (आष्टा) की प्रषंसा में कहा कि जहाँ पर ओंकारेश्‍वर का अनुग्रह, महाकालेश्‍वर की अनुकम्पा और पार्वती का पुण्य साक्षात् प्राप्त हो रहा हो ऐसी आष्टा नगरी चिन्मयधाम हैं, गोकुलधाम हैं। ऐसे वृहद आयोजन के लिए आष्टा के प्रथम नागरिक भाई कैलाश परमार बधाई के पात्र हैं। इसके पूर्व स्वामी जी का पुष्प गुच्छ से अभिनन्दन करने वालों में भोजमुक्त वि.वि. के कुलपति डाँ. कमलाकर, इन्दर सिंह परमार, राजमल जैन, कृपाल सिंह पटाड़ा, श्रीराम परमार रणजीत सिंह गुणवान, देवीसिंह परमार, दयाषंकर माथुर, योगेन्द्र सिंह मेवाड़ा, सतीष चन्द्र डोंगरे, महेश परमार भटोनी, नरेन्द्र सिंह ठाकुर, ओंकारसिंह ठाकुर एवं अन्य श्रध्दालु उपस्थित थे।