बसंत पंचमी धार्मिक एवं नई ऋतु आने का पर्व है। माघ मास के बीस दिन व्यतीत होते-होते शीत का प्रकोप काफी कम हो जाता है और शिशिर के पश्चात ऋतुराज बसन्त का आगमन होने लगता है। यद्यपि पेड़ों पर नये पत्ते और बसन्त ऋतु तो चैत्र-वैशाख में ही आती है, परन्तु बसन्त ऋतु के स्वागत में यह त्योहार मनाया जाता है। इसके साथ ही इसका बहुत अधिक धार्मिक महत्व भी है। आज भगवान विष्णु और मातेश्वरी सरस्वतीजी की पूजा तो की ही जाती है कामदेव तथा उनकी पत्नी रति की पूजा का भी विशिष्ट विधान है।
आज विद्या और कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वतीजी का जन्म दिवस है। यही कारण है कि नवरात्रों में दुर्गा पूजा के समान ही आज बड़ी धूमधाम से वीणा वादिनी सरस्वतीजी की पूजा की जाती है। सरस्वती पूजन के लिए एक दिन पूर्व से ही नियम पूर्वक रहकर, दूसरे दिन नित्य कर्मों से निवृत्त होकर कलश स्थापित करें। सर्वप्रथम गणेश, सूर्य, विष्णु, शंकर आदि भगवान की पूजा करके सरस्वतीजी का पूजन करना चाहिए।
सरस्वतीजी की पूजा में पीले रंग की वस्तुओं और फूलों के प्रयोग का विशिष्ट महत्व है। देवी के सामने पुस्तक रखकर दक्षिणा अर्पित कर आरती उतारी जाये और वासंती वस्त्र पहने जाएं। रेवड़ियों, केलों, किसोर इत्यादि का भोग लगाया जाये। मीठे केसरिया चावल बनाये जाएं। भगवान की मूर्ति तथा देवी सरस्वती की प्रतिमा को केसरिया रंग के वस्त्र पहनाने चाहिए। यह पूजा-उत्सव बिहार तथा बंगाल में बड़ी धूमधाम से शिक्षा संस्थानों तथा घरों में मनाया जाता है।
मातेश्वरी सरस्वती और भगवान विष्णु के अतिरिक्त आज कामदेव और रति की पूजा भी होती है। बसन्त कामदेव का सहचर है इसलिए कामदेव और रति की पूजा करके उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी चाहिए। आज पति को स्वयं परोसकर खाना अवश्य खिलायें। इससे पति के कष्टों का निवारण होता है और उसकी आयु में वृध्दि होती है।
बसन्त पंचमी को प्रात:काल तेल तथा उबटन लगाकर स्नान करना चाहिए और पवित्र वस्त्र धारण करके भगवान नारायण का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए।
इसके बाद पितृ-तर्पण और ब्राम्हण भोजन का भी विधान है। मंदिरों में भगवान की प्रतिमा का वासन्ती वस्त्रों और पुश्पों से श्रृंगार भी किया जाता है तथा बड़ा उत्सव मनाया जाता है। इस पंचमी को लोग पहले गुलाल उड़ाते थे और वासन्ती वस्त्र धारण कर नवीन उत्साह और प्रसन्नता के साथ अनेक प्रकार के मनोविनोद करते थे। यही कारण है कि बसन्त पंचमी को रंग पंचमी भी कहा जाता है।