Sunday, September 28, 2008

संसार में सब कुछ पाकर भी कुछ हाथ नहीं लगेगा मुनि विजय सागर जी

आष्टा 27 सितम्बर (नि.प्र.)। संसार इतना विचित्र है कि यहां सब कुछ पाकर भी कुछ हाथ नहीं लगेगा, जीतकर भी हार की सीढियाबन जाएगी विश्व का साम्राज्य भी व्यक्ति को मिल जाए तो भी कुछ और पाने की लालसा रहेगी। लालसा लोभ का कारण है। व्यक्ति की दिनों दिन आकांक्षा बढ़ती ही जा रही है।
यह बातें मुनि विजय सागर जी ने ग्राम धामंदा में श्री राम मंदिर परिसर में प्रवचन के दौरान कही। आपने कहा कि आज समाज साधु से धन दिलवाने की बात करते है कि हमें धर्मशाला बनवाना है, लेकिन धर्मशाला तो नाम रहता है उसे धन कमाने का साधन बनाते है। उसमें शौचालय,बाथरूम कमरे बनाकर धर्मशाला को कर्मशाला बनाकर विवाह शाला, भोगशाला आदि कर देते है। आज व्यक्ति की आकांक्षा तीन लोक की संपत्ति मिलने पर भी पूर्ण नहीं होती है। आकांक्षा को आपने झूठी आवश्यकता बताते हुए उसे सपना बताया। सपना कभी भी परिपूर्णा नहीं होता। सपने की जड़े न तो धरती पर होती है और न ही पाताल में। आवश्यकता शरीर स ेजुड़ी होती है, जबकि आकांक्षा मन से और शरीर की आवश्यकता भोजन है। पेट रोटी मांगता है, लेकिन मन कहता है केवल रोटी से काम नहीं चलेगा नरम-गरम के साथ नमकीन-मीठा भी होना चाहिए। भगवान महावीर कहते है कि आकांक्षा ही दु:ख का कारण है। आकांक्षा व्यक्ति को न जाने क्या-क्या कराती है। यह आकांक्षा व्यक्ति को कुछ देती नहीं लेकिन जो उसके पास उससे छीन लेती है। उम्मीदों के सहारे व्यक्ति जीवन भर दौड़ता रहता है और एक समय आता है कि वह जिंदगी से विदा हो जाता है। जो तुम्हारे पास है, उसका आनन्द लो।
प्रारंभ में मंगलचरण पंडित निर्मल कुमार ने किया तथा संचालन पवन जैन ने किया। इस अवसर पर ग्राम के अनेक जन उपस्थित थे।


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