प्रभु श्री राम का लौकिक जीवन त्याग और आदर्श का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने स्वयं उस आचरण का वरण किया, जो आम जीवन में प्रचलित थे या जिन्हें सामाजिक-नैतिक दायित्वों की तरह निभाने की परंपरा थी। श्री राम के बनवास का प्रसंग याद करें। मानस में उस पूरे दृश्य को इतना कारुणिक और जीवंतता से वर्णन किया गया है कि भला वह कौन होगा, जिसकी आंखों से अश्रुधार न बहे।
एक तरफ माता कैकेयी का हठ, राजा दशरथ की प्रतिज्ञा, व्यथा और पश्चाताप। माता कौशल्या की वेदना और माता सीता के प्रभु के साथ वनगमन जाने की बात कहने पर श्रीराम का उन्हें समझाना।
वनगमन का प्रसंग एक साथ कई भावनात्मक अभिव्य1तियों की परिणति ही तो है। माता कैकेयी राम के प्रति दुर्भावना नहीं रखती थीं। यहां तक कि श्री राम के बनवास का वर मांगने के बावजूद उनके वात्सल्य में कहीं कोई कमी नहीं थी। राम के बनवास का उनका वर मांगना उनके अतिशय पुत्रमोह का ज्ञोतक है, जहां वह एक आम मानवीय माता की भांति दिखाई पड़ती हैं। राजा दशरथ द्वारा राम के राज्याभिषेक की घोषणा के बाद से ही उनका मन कातर हो गया था। वह अपने पुत्र भरत के भविष्य के प्रति शंकालु हो गयी थीं। उनके मन में यह डर था कि राजा बनने के बाद राम कहीं उनके पुत्र भरत को उपेक्षित न कर दें। श्री राम ने वनगमन का रास्ता चुनकर दो बातें साबित कीं। पहली बात यह कि पिता का वचन व्यर्थ न जाए और दूसरी बात यह कि पिता केद्वारा दिया गया वचन का एक पुत्र से उल्लंघन भी न हो। यह मध्यम मार्ग था, जिसमें 14 साल का बनवास का रास्ता चुन राम ने राजाज्ञा से उपजी समूची पीड़ा खुद पर ओढ़ ली। इससे निर्मल और उदात्त चरित केदर्शन भला और कहां होंगे? बनवास का मार्ग सहर्ष चुनने की प्रभु राम की इच्छा का अतिरेक है रावण का संहार। अगर वह बनवास नहीं जाते, तो रावण के संहार की स्थिति कैसे बनती?
उधर माता सीता ने भी वनगमन का रास्ता चुन अपना पातिव्रत्य धर्म ही तो निभाया। प्रभु श्रीराम की संगिनी होने केसाथ जन्म-जन्मांतर का नाता जुड़ा था। विपरीत परिस्थितियों में भी पत्नी अगर पति का साथ न दे, तो फिर वह कैसा दांपत्य होता? सो माता जानकी ने अपने नाजुक पैरों से मार्ग के शरों पर निस्पृह भाव से चलना स्वीकार किया और प्रभु को इसकी भनक भी न लगने दी कि उन्हें किसी किस्म की पीड़ा भी है। भाई भरत का चरित तो और भी आदर्श है। वह तो प्रभु श्री राम को अयोध्या की सीमा तक छोड़ने गए और उनका खड़ाऊं लेकर ही लौटे। राजधर्म से ऐसी वितृष्णा हुई कि उनकी चरणपादुका की सेवा और रक्षा ही अपना राजधर्म मान लिया। धन्य है वह भाई, जो अपने भाई के वास्तविक अधिकार की रक्षा करता रहा 14 साल तक, खुद संन्यासी बन, जबकि उसे तो राजा दशरथ ने राजगद्दी सौंप ही दी थी। वनगमन का प्रसंग त्याग और मानवीय मूल्यों के निर्वहन का एक संपुट दृष्टांत है, जिसे हर काल में महसूस कर राम के उदात्त चरित्र के साथ चित्रित किया जा सकता है। श्रीराम के साथ लखन, भाई भरत और शत्रुघ्न समेत उनके बनवास काल में जितने भी चरित्र उभर कर आए हैं, सबमें एक अतुल्य मूल्यबोध और आदर्श का पुट है।