सिपाही बहादुर सरकार के क्रांतिकारियों को भूल गया सीहोर
14 जनवरी 1857 का वह दिन सीहोर कैसे भूल सकता है जब यहाँ के रणबांकुरे सैनिकों ने सिपाही बहादुर सरकार का गठन कर अंग्रेजों को सीहोर से ही खदेड़कर बाहर निकाल दिया था और झण्डा-ए- महावीरी और निशाने मोहम्मदी को फहरा दिया गया था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे पहले बिगुल फूंकने वाले सीहोर नगर के इतिहास के पृष्ठों पर ''सिपाही बहादुर सरकार'' का अमिट इतिहास आज भी नई पीढ़ी को देश के उन रणबांकुरों के प्रति नतमस्तक किये हुए हैं।
फिर भी सीहोर के इतिहास को मध्य प्रदेश शासन के इतिहास संबंधी विभागों द्वारा विशेष मान्यता तो दी गई लेकिन कभी यहाँ ऐतिहासिक स्मारकों और जीर्ण-शीर्ण हो रहे अवशेषों की तरफ मध्य प्रदेश शासन ने ध्यान नहीं दिया। जबकि सीहोर का इतिहास पूरे देश की जंगे आजादी की लड़ाई में सबसे अमिट और तेजस्वी स्वरूप लिये हुए है।
इस संबंध में उर्दू में प्रकाशित ऐतिहासिक पुस्तक ''सिपाही बहादुर'' जो भोपाल के प्रसिध्द इतिहासकार और स्वतंत्रता संग्राम सैनानी श्री असद उल्ला खाँ साहब द्वारा लिखी गई थी। इस किताब की पृष्ठभूमि में ही स्वयं असलउल्ला खां साहब ने लिखा है कि ''1857 के स्वतंत्रता संग्राम के तूफान के आगे अंग्रेजों के कदम लगभग उखड़ चुके थे और हर तरफ अंग्रेज बेसहारा बनकर बदहवासी में पागलों की तरफ फिर रहे थे, इन परिस्थितियों में भोपाल कन्टिनजेन्ट के बाग़ी सिपाहियों ने 'वली शाह रिसालदार' के नेतृत्व में 6 अगस्त 1857 को सीहोर में अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ बग़ावत का झण्डा बुलंद किया। उन्होने बैरसिया और सीहोर में अंग्रेजों के बंगलों को आग लगा दी। बैरसिया में जो अंग्रेज थे उनको कत्ल कर दिया । सरकारी खजाने लूट लिया । इसके फौरन बाद उन्होने अपनी एक सरकार ''सिपाही बहादुर'' के नाम स्थापित की । उन्होने जगह-जगह इस नई सरकार के झण्डे गाड़ दिये और मुसलमानों, हिन्दुओं से अपील की कि वो इस नई सरकार के हाथ मजबूत करें । उन्होने अपनी सरकार के तहत विभिन्न प्रशासनिक कार्यालय भ्ज्ञी स्थापित करना प्रारंभ कर दिये । भोपाल की बगावत कई एतबार से मध्यभारत और मालवा की बग़ावतों से भिन्न थी क्योंकि भोपाल के बागियों ने भोपाल की बग़ावत को एक बा-मकसद और मजबूत शक्ल देने की समझदार कोशिश की थी । ये एक क्रांतिकारी कदम था जिसमें हिन्दुस्तान से अंग्रेजों को निकालकर शासन की बागडोर हिन्दुस्तानी जनता के हाथों में देने का इरादा सम्मिलित था। इस 'सिपाही बहादुर सरकार' को स्थापित करने वाले सीहोर फौज के चार वतनपरस्त बहादुर अफसर थे। जिस फ़ौज का नाम भोपाल कन्टिनजेंट था। भोपाल राज्य में ये पहली समानान्तर सरकार थी जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ स्थापित हुई थी। जिस समय ये सरकार स्थापित हुई उस वक्त उसके संस्थापक फ़ौज के एक अफसर बाग़ी रिसालदार वली शाह थे। उन्होने इस सरकार की स्थापना के समय बाग़ी फौजियों को रियासत भोपाल के पॉलिटिक एजेन्ट मेजर हैनरी विलियम के कार्यालय जो सीहोर में स्थित था के पास जमा करने के बाद उनके सामने एक वलवला अंगेज और जोशीली तकरीर की थी । वली शाह के साथ तीन अफ़सर जो उस बग़ावत के नेता थे उनके नाम हैं आरिफ शाह, महावीर और रमजू लाल।''
इस प्रकार इतिहास के पृष्ठों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि सीहोर में सिपाही बहादुर सरकार का न केवल गठन हुआ था बल्कि इस बहादुर सरकार ने यहाँ से अंग्रेजों को खदेड़ भी दिया था लेकिन भोपाल रियासत की बेगम की मिली भगत के चलते अंग्रेजों ने सिपाही बहादुर सरकार में शामिल 356 सिपाहियों को गोलियों से उड़ा दिया था। इस संदर्भ में भी देश की विभिन्न ऐतिहासिक किताबों में उल्लेख मिलता है जैसे 'हयाते सिकन्दरी' जिसके संपादक जनरल उबैद उल्ला खाँ, नवाब सुल्तान जहाँ बेगम हैं के पृष्ठ क्रमांक 56, 'भोपाल स्टेट गजेटियर' के पृष्ठ 122 पर सहित अन्य किताबों में भी इस घटना का उल्लेख स्पष्ट रूप से उल्लेखित है।
सिपाही बहादुर सरकार के देशभक्त सैनिकों को सामुहिक रूप से कत्ल कर दिया गया था । ''सिपाही बहादुर'' नामक उर्दू में प्रकाशित ऐतिहासिक पुस्तक में एक जगह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि ''जनरल रोज़ बहुत तानाशाह व्यक्ति था, इसके अतिरिक्त वह हिन्दुस्तान के राष्ट्रवादियों के खून का प्यासा था। उसने हालात की जानकारी प्राप्त करने के पश्चात यह निर्णय लिया कि बाग़ियों को सजा-ए-मौत दे दी जाये। अत: 14 जनवरी 1858 को सीहोर के सैकड़ो राष्ट्रवादी कैदियों को जेल से निकाला गया और एक मैदान में लाकर खड़ाकर दिया गया । यहाँ उनकी छोटी- छोटी टुकड़ियाँ बनाकर गोलियों से भून डाला गया। इस प्रकार 356 कैदियों को बिना किसी नियमित जाँच के गोलियों से उड़ा दिया गया। इसके अतिरिक्त सैकड़ों कैदियों को सेवा से पृथक किया गया और सीमाओं के बाहर कर दिया गया। इन बहादुर फोजियों ने सजा-ए-मौत से बचने के लिये माफ़ी का कोई निवेदन नहीं किया । उन्होने वतन की आजादी के लिये सरकार से समझौता करने के बजाय अत्याधिक दिलेरी से मौत को गले लगा लिया । इस प्रकार 'सिपाही बहादुर' के दीवानों ने सारी दुनिया को हमेशा के लिये ये रास्ता दिखा दिया कि देश और कौम की आजादी के लिये किस प्रकार सच्चे सिपाही अपनी जानों को भेंट स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।''
सीहोर के लिये यह गौरव की बात है कि यहाँ के बहादुर सैनिकों ने 'सिपाही बहादुर' सरकार का गठन कर अंग्रेजों को सीहोर से खदेड़ दिया था और अंत तक अंग्रेजों के आगे वह झुके नहीं। आज भी इन बहादुर सिपाहियों की अनेक समाधियाँ बनी हुई हैं जो अब जीर्ण-शीर्ण स्थिति में आ गई हैं लेकिन मध्य प्रदेश शासन ने कभी इन स्मारकों को सहेजने के लिये इसके प्रति गंभीरता से कदम नहीं उठाये।
स्थानीय जिला प्रशासन ने भी इस तरफ कभी ध्यान नहीं देता। पिछले कुछ समय से बसंत उत्सव समिति द्वारा अवश्य 14 जनवरी को एक पुष्पांजली कार्यक्रम आयोजित किया जाने लगा है लेकिन शासन और स्थानीय सामाजिक, राष्ट्रवादी सोच के लोग, राजनेता इसके प्रति सचेत नहीं हुए हैं।
फिर भी सीहोर के इतिहास को मध्य प्रदेश शासन के इतिहास संबंधी विभागों द्वारा विशेष मान्यता तो दी गई लेकिन कभी यहाँ ऐतिहासिक स्मारकों और जीर्ण-शीर्ण हो रहे अवशेषों की तरफ मध्य प्रदेश शासन ने ध्यान नहीं दिया। जबकि सीहोर का इतिहास पूरे देश की जंगे आजादी की लड़ाई में सबसे अमिट और तेजस्वी स्वरूप लिये हुए है।
इस संबंध में उर्दू में प्रकाशित ऐतिहासिक पुस्तक ''सिपाही बहादुर'' जो भोपाल के प्रसिध्द इतिहासकार और स्वतंत्रता संग्राम सैनानी श्री असद उल्ला खाँ साहब द्वारा लिखी गई थी। इस किताब की पृष्ठभूमि में ही स्वयं असलउल्ला खां साहब ने लिखा है कि ''1857 के स्वतंत्रता संग्राम के तूफान के आगे अंग्रेजों के कदम लगभग उखड़ चुके थे और हर तरफ अंग्रेज बेसहारा बनकर बदहवासी में पागलों की तरफ फिर रहे थे, इन परिस्थितियों में भोपाल कन्टिनजेन्ट के बाग़ी सिपाहियों ने 'वली शाह रिसालदार' के नेतृत्व में 6 अगस्त 1857 को सीहोर में अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ बग़ावत का झण्डा बुलंद किया। उन्होने बैरसिया और सीहोर में अंग्रेजों के बंगलों को आग लगा दी। बैरसिया में जो अंग्रेज थे उनको कत्ल कर दिया । सरकारी खजाने लूट लिया । इसके फौरन बाद उन्होने अपनी एक सरकार ''सिपाही बहादुर'' के नाम स्थापित की । उन्होने जगह-जगह इस नई सरकार के झण्डे गाड़ दिये और मुसलमानों, हिन्दुओं से अपील की कि वो इस नई सरकार के हाथ मजबूत करें । उन्होने अपनी सरकार के तहत विभिन्न प्रशासनिक कार्यालय भ्ज्ञी स्थापित करना प्रारंभ कर दिये । भोपाल की बगावत कई एतबार से मध्यभारत और मालवा की बग़ावतों से भिन्न थी क्योंकि भोपाल के बागियों ने भोपाल की बग़ावत को एक बा-मकसद और मजबूत शक्ल देने की समझदार कोशिश की थी । ये एक क्रांतिकारी कदम था जिसमें हिन्दुस्तान से अंग्रेजों को निकालकर शासन की बागडोर हिन्दुस्तानी जनता के हाथों में देने का इरादा सम्मिलित था। इस 'सिपाही बहादुर सरकार' को स्थापित करने वाले सीहोर फौज के चार वतनपरस्त बहादुर अफसर थे। जिस फ़ौज का नाम भोपाल कन्टिनजेंट था। भोपाल राज्य में ये पहली समानान्तर सरकार थी जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ स्थापित हुई थी। जिस समय ये सरकार स्थापित हुई उस वक्त उसके संस्थापक फ़ौज के एक अफसर बाग़ी रिसालदार वली शाह थे। उन्होने इस सरकार की स्थापना के समय बाग़ी फौजियों को रियासत भोपाल के पॉलिटिक एजेन्ट मेजर हैनरी विलियम के कार्यालय जो सीहोर में स्थित था के पास जमा करने के बाद उनके सामने एक वलवला अंगेज और जोशीली तकरीर की थी । वली शाह के साथ तीन अफ़सर जो उस बग़ावत के नेता थे उनके नाम हैं आरिफ शाह, महावीर और रमजू लाल।''
इस प्रकार इतिहास के पृष्ठों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि सीहोर में सिपाही बहादुर सरकार का न केवल गठन हुआ था बल्कि इस बहादुर सरकार ने यहाँ से अंग्रेजों को खदेड़ भी दिया था लेकिन भोपाल रियासत की बेगम की मिली भगत के चलते अंग्रेजों ने सिपाही बहादुर सरकार में शामिल 356 सिपाहियों को गोलियों से उड़ा दिया था। इस संदर्भ में भी देश की विभिन्न ऐतिहासिक किताबों में उल्लेख मिलता है जैसे 'हयाते सिकन्दरी' जिसके संपादक जनरल उबैद उल्ला खाँ, नवाब सुल्तान जहाँ बेगम हैं के पृष्ठ क्रमांक 56, 'भोपाल स्टेट गजेटियर' के पृष्ठ 122 पर सहित अन्य किताबों में भी इस घटना का उल्लेख स्पष्ट रूप से उल्लेखित है।
सिपाही बहादुर सरकार के देशभक्त सैनिकों को सामुहिक रूप से कत्ल कर दिया गया था । ''सिपाही बहादुर'' नामक उर्दू में प्रकाशित ऐतिहासिक पुस्तक में एक जगह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि ''जनरल रोज़ बहुत तानाशाह व्यक्ति था, इसके अतिरिक्त वह हिन्दुस्तान के राष्ट्रवादियों के खून का प्यासा था। उसने हालात की जानकारी प्राप्त करने के पश्चात यह निर्णय लिया कि बाग़ियों को सजा-ए-मौत दे दी जाये। अत: 14 जनवरी 1858 को सीहोर के सैकड़ो राष्ट्रवादी कैदियों को जेल से निकाला गया और एक मैदान में लाकर खड़ाकर दिया गया । यहाँ उनकी छोटी- छोटी टुकड़ियाँ बनाकर गोलियों से भून डाला गया। इस प्रकार 356 कैदियों को बिना किसी नियमित जाँच के गोलियों से उड़ा दिया गया। इसके अतिरिक्त सैकड़ों कैदियों को सेवा से पृथक किया गया और सीमाओं के बाहर कर दिया गया। इन बहादुर फोजियों ने सजा-ए-मौत से बचने के लिये माफ़ी का कोई निवेदन नहीं किया । उन्होने वतन की आजादी के लिये सरकार से समझौता करने के बजाय अत्याधिक दिलेरी से मौत को गले लगा लिया । इस प्रकार 'सिपाही बहादुर' के दीवानों ने सारी दुनिया को हमेशा के लिये ये रास्ता दिखा दिया कि देश और कौम की आजादी के लिये किस प्रकार सच्चे सिपाही अपनी जानों को भेंट स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।''
सीहोर के लिये यह गौरव की बात है कि यहाँ के बहादुर सैनिकों ने 'सिपाही बहादुर' सरकार का गठन कर अंग्रेजों को सीहोर से खदेड़ दिया था और अंत तक अंग्रेजों के आगे वह झुके नहीं। आज भी इन बहादुर सिपाहियों की अनेक समाधियाँ बनी हुई हैं जो अब जीर्ण-शीर्ण स्थिति में आ गई हैं लेकिन मध्य प्रदेश शासन ने कभी इन स्मारकों को सहेजने के लिये इसके प्रति गंभीरता से कदम नहीं उठाये।
स्थानीय जिला प्रशासन ने भी इस तरफ कभी ध्यान नहीं देता। पिछले कुछ समय से बसंत उत्सव समिति द्वारा अवश्य 14 जनवरी को एक पुष्पांजली कार्यक्रम आयोजित किया जाने लगा है लेकिन शासन और स्थानीय सामाजिक, राष्ट्रवादी सोच के लोग, राजनेता इसके प्रति सचेत नहीं हुए हैं।